पटना – बिहार की राजनीति में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के एक प्रमुख सहयोगी राष्ट्रीय लोक मोर्चा (आरएलएम) के भीतर गहराता असंतोष एक बार फिर वंशवाद की बहस को केंद्र में ले आया है। पार्टी प्रमुख उपेंद्र कुशवाहा के नेतृत्व को लेकर उठे सवालों के बीच संगठन आंतरिक संकट से जूझता नजर आ रहा है। हालिया घटनाक्रम ने न केवल पार्टी की एकजुटता पर प्रश्नचिह्न लगाया है, बल्कि आगामी राजनीतिक रणनीतियों को लेकर भी अनिश्चितता बढ़ा दी है।
पार्टी में असंतोष उस समय खुलकर सामने आया जब आरएलएम के चार में से तीन विधायकों ने उपेंद्र कुशवाहा द्वारा आयोजित रात्रिभोज में हिस्सा नहीं लिया। इसे पार्टी नेतृत्व के खिलाफ एक प्रतीकात्मक विरोध के रूप में देखा जा रहा है। इन विधायकों की गैरमौजूदगी ने यह स्पष्ट संकेत दिया कि पार्टी के भीतर मतभेद केवल संगठनात्मक स्तर तक सीमित नहीं हैं, बल्कि विधायकों तक भी पहुंच चुके हैं।
इस विवाद की मुख्य वजह उपेंद्र कुशवाहा द्वारा अपने पुत्र को राजनीतिक रूप से आगे बढ़ाने को लेकर उठ रहे आरोप हैं। पार्टी के भीतर एक वर्ग का आरोप है कि नेतृत्व में रहते हुए कुशवाहा पारिवारिक सदस्यों को प्राथमिकता दे रहे हैं, जिससे संगठन की वैचारिक प्रतिबद्धता और आंतरिक लोकतंत्र प्रभावित हो रहा है। आलोचकों का कहना है कि जिन मूल सिद्धांतों के आधार पर आरएलएम की स्थापना की गई थी, वे अब कमजोर पड़ते दिख रहे हैं।
एक विधायक ने खुलकर कहा कि राजनीति में वंशवाद को बढ़ावा देना पार्टी के लिए आत्मघाती साबित हो सकता है। उनका कहना था कि जब एक ही परिवार के कई सदस्य सत्ता और संगठन में प्रभावशाली भूमिका निभाने लगते हैं, तो जमीनी कार्यकर्ताओं और वरिष्ठ नेताओं में असंतोष स्वाभाविक है। हालांकि, उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि फिलहाल पार्टी छोड़ने का कोई निर्णय नहीं लिया गया है।
यह संकट केवल विधायकों तक सीमित नहीं है। इससे पहले पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं ने भी इस्तीफा देकर नेतृत्व पर गंभीर आरोप लगाए थे। इस्तीफा देने वाले नेताओं का कहना था कि पार्टी अब अपने मूल उद्देश्य से भटक चुकी है और आत्मसम्मान से समझौता कर संगठन में बने रहना संभव नहीं है। इन नेताओं ने नेतृत्व पर एकतरफा फैसले लेने और संगठनात्मक संवाद की कमी का आरोप लगाया।
राष्ट्रीय लोक मोर्चा की पृष्ठभूमि पर नजर डालें तो उपेंद्र कुशवाहा ने इसे जनता दल (यूनाइटेड) से अलग होने के बाद एक वैकल्पिक राजनीतिक मंच के रूप में स्थापित किया था। पार्टी ने सामाजिक न्याय, पिछड़े वर्गों के प्रतिनिधित्व और वैचारिक राजनीति का दावा करते हुए खुद को एक अलग पहचान देने की कोशिश की थी। हालिया विधानसभा चुनावों में पार्टी का प्रदर्शन सीमित लेकिन राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण रहा, जिससे वह सत्तारूढ़ गठबंधन का हिस्सा बनी।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि छोटे और क्षेत्रीय दलों में नेतृत्व की भूमिका अत्यंत निर्णायक होती है। एक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक के अनुसार,
“जब किसी पार्टी में निर्णय लेने की प्रक्रिया पारदर्शी न रहे और पारिवारिक संबंधों को योग्यता से ऊपर रखा जाए, तो असंतोष उभरना स्वाभाविक है। यह केवल एक दल का संकट नहीं, बल्कि क्षेत्रीय दलों की आंतरिक लोकतांत्रिक संरचना से जुड़ा बड़ा प्रश्न है।”
बीजेपी, जो बिहार में अपने सहयोगी दलों के साथ संतुलन साधकर चलती रही है, इस पूरे घटनाक्रम पर करीबी नजर बनाए हुए है। असंतुष्ट विधायकों और गठबंधन सहयोगियों के बीच बढ़ती बातचीत ने राजनीतिक हलकों में नई अटकलों को जन्म दिया है।
बिहार की राजनीति में दल-बदल, गठबंधन और आंतरिक कलह कोई नई बात नहीं है। हालांकि, वंशवाद का मुद्दा हमेशा से ही मतदाताओं और राजनीतिक दलों दोनों के लिए संवेदनशील रहा है। ऐसे में राष्ट्रीय लोक मोर्चा के सामने यह बड़ी चुनौती है कि वह इस संकट से कैसे उबरता है और क्या वह अपने संगठन को एकजुट रखने में सफल हो पाता है या नहीं।
