नई दिल्ली: भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI) के 100 वर्ष पूरे होने के अवसर पर पार्टी के वैचारिक इतिहास और उसकी शुरुआती राजनीतिक सोच पर एक बार फिर चर्चा तेज हो गई है। इस संदर्भ में पार्टी के पहले सम्मेलन और उसके अध्यक्ष एम. सिंगारवेलु चेट्टियार के उस ऐतिहासिक भाषण की ओर ध्यान गया है, जिसने भारतीय वाम राजनीति की दिशा और स्वरूप को प्रारंभिक दौर में ही स्पष्ट कर दिया था।
25 से 27 दिसंबर 1925 के बीच कानपुर में आयोजित पहले भारतीय कम्युनिस्ट सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए एम. सिंगारवेलु ने कांग्रेस पार्टी, महात्मा गांधी, सामाजिक सुधार और धर्म की व्याख्या पर ऐसे विचार रखे थे, जो उस समय के मुख्यधारा राजनीतिक विमर्श से काफी अलग और कई मायनों में विवादास्पद थे। उनका भाषण आज भी वामपंथी राजनीति की वैचारिक जड़ों को समझने के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है।
अपने संबोधन में सिंगारवेलु ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को एक “बुर्जुआ वर्ग की पार्टी” करार दिया। उनके अनुसार, कांग्रेस का नेतृत्व मुख्य रूप से संपन्न वर्गों के हाथों में था और वह मजदूरों तथा किसानों की वास्तविक समस्याओं को मूल रूप से संबोधित करने में असमर्थ थी। उन्होंने कहा, “कांग्रेस जनसाधारण की आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करने का दावा करती है, लेकिन उसका सामाजिक आधार पूंजीपति वर्ग में निहित है।” यह टिप्पणी उस दौर में कांग्रेस की सर्वव्यापक स्वीकार्यता के बीच एक तीखा वैचारिक प्रतिरोध मानी जाती है।
महात्मा गांधी द्वारा खादी और स्वदेशी पर दिए गए जोर की भी सिंगारवेलु ने आलोचना की। उनका मानना था कि खादी का प्रचार गरीबी और शोषण की मूल आर्थिक संरचनाओं को नहीं बदल सकता। उन्होंने तर्क दिया कि उत्पादन के साधनों पर नियंत्रण और वर्गीय असमानता को समाप्त किए बिना केवल प्रतीकात्मक उपायों से सामाजिक न्याय संभव नहीं है। यह दृष्टिकोण स्पष्ट रूप से मार्क्सवादी आर्थिक विश्लेषण से प्रेरित था।
अपने भाषण में सिंगारवेलु ने छुआछूत की समस्या को भी एक अलग दृष्टि से परिभाषित किया। उन्होंने इसे धार्मिक या नैतिक समस्या के बजाय “शुद्ध रूप से एक आर्थिक समस्या” बताया। उनके अनुसार, जाति-आधारित भेदभाव की जड़ें आर्थिक शोषण और संसाधनों के असमान वितरण में थीं। यह विचार उस समय के सामाजिक सुधार आंदोलनों से अलग था, जो अधिकतर नैतिक और धार्मिक अपीलों पर आधारित थे।
सिंगारवेलु के भाषण का एक और उल्लेखनीय पहलू धर्म और इतिहास की उनकी व्याख्या थी। उन्होंने गौतम बुद्ध और ईसा मसीह को “कम्युनिस्ट” बताया और कहा कि इन ऐतिहासिक व्यक्तित्वों की शिक्षाएँ समानता, साझेदारी और शोषण-विरोधी मूल्यों पर आधारित थीं। उनके अनुसार, बाद में संस्थागत धर्मों ने इन मूल विचारों को विकृत कर दिया। यह बयान उस दौर के धार्मिक और सामाजिक ढांचे को चुनौती देने वाला माना गया।
हालांकि, अपने वैचारिक विरोधों के बावजूद सिंगारवेलु ने बाल गंगाधर तिलक जैसे राष्ट्रवादी नेताओं की भूमिका की सराहना भी की। उन्होंने तिलक को औपनिवेशिक शासन के खिलाफ संघर्ष का एक साहसी प्रतीक बताया और स्वीकार किया कि राष्ट्रीय आंदोलन के भीतर विभिन्न धाराओं का योगदान महत्वपूर्ण रहा है। यह संतुलन दर्शाता है कि प्रारंभिक भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन पूरी तरह अलगाववादी नहीं था, बल्कि राष्ट्रीय संघर्ष के भीतर अपनी स्वतंत्र पहचान बनाने की कोशिश कर रहा था।
इतिहासकारों के अनुसार, सिंगारवेलु का भाषण उस वैचारिक स्पष्टता को दर्शाता है, जिसके साथ भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन ने अपने शुरुआती कदम रखे। आज, जब सीपीआई अपनी शताब्दी मना रही है और बदलती राजनीतिक एवं सामाजिक परिस्थितियों में अपनी भूमिका पर पुनर्विचार कर रही है, तब यह भाषण न केवल अतीत की झलक देता है बल्कि वर्तमान बहसों के लिए भी संदर्भ प्रदान करता है।
सीपीआई के 100 वर्ष पूरे होने का यह अवसर इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह पार्टी को अपने वैचारिक स्रोतों, शुरुआती आलोचनाओं और मूल उद्देश्यों की समीक्षा करने का मौका देता है। सिंगारवेलु का भाषण याद दिलाता है कि भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन की नींव शुरू से ही सामाजिक समानता, आर्थिक न्याय और मुख्यधारा राजनीति की आलोचना पर आधारित रही है।
