नई दिल्ली/कोलकाता: भारत में राजनीतिक दलों की फंडिंग लंबे समय से सार्वजनिक बहस का विषय रही है। चुनावी बॉन्ड से जुड़े आंकड़ों के सार्वजनिक होने के बाद राजनीतिक चंदे की पारदर्शिता को लेकर चर्चाएं और तेज हो गई हैं। इसी क्रम में तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) की फंडिंग को लेकर भी कई अहम तथ्य सामने आए हैं, जो यह दिखाते हैं कि पार्टी को बड़े पैमाने पर चुनावी ट्रस्टों और कॉर्पोरेट स्रोतों से वित्तीय समर्थन मिला।
उपलब्ध जानकारी के अनुसार, अप्रैल 2019 से जनवरी 2024 के बीच तृणमूल कांग्रेस ने कुल 1,609 करोड़ रुपये के चुनावी बॉन्ड भुनाए। यह राशि भारतीय जनता पार्टी के बाद किसी भी राजनीतिक दल द्वारा प्राप्त की गई दूसरी सबसे बड़ी रकम मानी जाती है। इन आंकड़ों ने यह सवाल फिर से खड़ा कर दिया है कि राजनीतिक दलों को मिलने वाले बड़े चंदे के पीछे कौन-कौन से स्रोत सक्रिय रहते हैं।
तृणमूल कांग्रेस को मिले चंदे में चुनावी ट्रस्टों की भूमिका प्रमुख रही है। चुनावी ट्रस्ट ऐसे माध्यम होते हैं, जिनके जरिए कंपनियां और संस्थागत दानदाता राजनीतिक दलों को औपचारिक रूप से धन उपलब्ध कराते हैं। इसके अलावा, कुछ निजी कंपनियों और लॉटरी व्यवसाय से जुड़ी फर्मों का नाम भी पार्टी के प्रमुख दानदाताओं में शामिल रहा है। इससे यह संकेत मिलता है कि क्षेत्रीय दल होते हुए भी टीएमसी का फंडिंग नेटवर्क राष्ट्रीय स्तर पर फैला हुआ है।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि पश्चिम बंगाल जैसे बड़े और राजनीतिक रूप से सक्रिय राज्य में सत्ता में बनी रहने के लिए व्यापक संसाधनों की आवश्यकता होती है। चुनावी अभियानों, संगठन विस्तार, जनसभाओं और मीडिया प्रचार पर होने वाला खर्च लगातार बढ़ा है। ऐसे में बड़े दानदाताओं और संगठित फंडिंग स्रोतों की भूमिका स्वाभाविक रूप से बढ़ जाती है।
इस मुद्दे पर एक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक ने कहा,
“चुनावी बॉन्ड के आंकड़ों से यह स्पष्ट होता है कि क्षेत्रीय दल अब केवल स्थानीय चंदे पर निर्भर नहीं हैं। वे भी उसी फंडिंग मॉडल की ओर बढ़ रहे हैं, जो राष्ट्रीय दलों में पहले से प्रचलित है।”
तृणमूल कांग्रेस की पृष्ठभूमि पर नजर डालें तो पार्टी की स्थापना 1998 में ममता बनर्जी ने की थी। 2011 में पश्चिम बंगाल की सत्ता में आने के बाद से टीएमसी राज्य की प्रमुख राजनीतिक शक्ति बनी हुई है। लगातार चुनावी जीत और मजबूत संगठन के चलते पार्टी का चुनावी खर्च भी बढ़ा है, जिसके लिए स्थायी और बड़े वित्तीय संसाधनों की आवश्यकता पड़ती है।
भारत में राजनीतिक फंडिंग का ढांचा पिछले कुछ वर्षों में तेजी से बदला है। पहले जहां व्यक्तिगत दान और स्थानीय स्तर के योगदान अधिक प्रचलित थे, वहीं अब कॉर्पोरेट दान, चुनावी ट्रस्ट और औपचारिक वित्तीय माध्यमों की भूमिका बढ़ी है। हालांकि, आलोचकों का कहना है कि बड़े चंदे से राजनीतिक प्रभाव और नीतिगत प्राथमिकताओं पर असर पड़ने की आशंका बनी रहती है।
इस बीच, पारदर्शिता और जवाबदेही को लेकर चुनाव आयोग की भूमिका भी महत्वपूर्ण हो गई है। आयोग द्वारा पार्टियों से आय-व्यय का विवरण सार्वजनिक करने की अनिवार्यता ने राजनीतिक फंडिंग को लेकर आम जनता की जानकारी बढ़ाई है। इसके बावजूद, यह बहस जारी है कि क्या मौजूदा व्यवस्था पूरी तरह से पारदर्शी कही जा सकती है।
तृणमूल कांग्रेस की ओर से समय-समय पर यह कहा जाता रहा है कि पार्टी को मिलने वाला चंदा कानून के दायरे में और वैध प्रक्रियाओं के तहत प्राप्त होता है। पार्टी नेताओं का तर्क है कि किसी भी राजनीतिक दल के लिए संसाधन जुटाना लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा है, बशर्ते वह नियमों के अनुरूप हो।
आगामी लोकसभा और विधानसभा चुनावों के मद्देनजर, राजनीतिक दलों की फंडिंग एक बार फिर सुर्खियों में रहने की संभावना है। तृणमूल कांग्रेस को मिले चंदे से जुड़े ये आंकड़े न केवल पार्टी की वित्तीय ताकत को दर्शाते हैं, बल्कि भारत में बदलते राजनीतिक वित्त तंत्र की भी स्पष्ट तस्वीर पेश करते हैं।
