बिहार विधानसभा चुनाव‑2025 के मद्देनज़र नीतीश कुमार की सरकार की शराब निषेध नीति फिर से चर्चा में है। सामाजिक रूप से यह नीति महिलाओं के बीच व्यापक समर्थन पा चुकी है, लेकिन पुरुषों और विभिन्न जातीय‑वर्गों में इससे नाराजगी बढ़ी है। इस पूर्वापेक्षा में कि निषेध से घरेलू हिंसा घटेगी और घरेलू बजट बेहतर होगा, अब पेट में राजस्व की कमी और भूमिगत शराब के कारोबार ने इस नीति को अभियान के लिए बोझ बना दिया है।
बिहार में अप्रैल 2016 में शराब, भांग व अन्य मादक पदार्थों के उत्पादन, बिक्री, परिवहन तथा उपभोग पर पूर्ण रोक लगाई गई थी। इस कदम का उद्देश्य महिलाओं‑परिवारों की सुरक्षा एवं सामाजिक सुधार के लिए था। निषेध लागू होने के बाद घरेलू विवाद कम होने और घरेलू खर्चों में सुधार होने की खबरें आने लगी थीं।
हालिया सर्वेक्षण और रिपोर्टों से पता चलता है कि महिला मतदाताओं में इस नीति का समर्थन आज भी मजबूत है। ग्रामीण इलाकों की महिलाएं कहती हैं कि शराब की प्रवृत्ति में गिरावट आने से घरेलू माहौल बेहतर हुआ है। उदाहरण के तौर पर, एक महिला ने कहा:
“पहले शराबी पति लौटता था और घर में कलह होती थी। अब स्थिति बेहतर है।”
वहीं पुरुष मतदाताओं में यह असमर्थता देखने को मिल रही है—मल्टी‑वर्गीय पुरुष समूह इसे “आर्थिक बोझ” और “निज़ी स्वतंत्रता में हस्तक्षेप” जैसा मान रहे हैं। “नीतीश जी ने अच्छा काम किया लेकिन यह निषेध उनकी सबसे बड़ी भूल है,” कहते हैं एक पुरुष मतदाता।
राजनीतिक रूप से भी यह नीति परीक्षा में है। सरकार इसे “नैतिक सुधार” बताते हुए महिलाओं के हित में लागू बताती है, जबकि विपक्ष इसे हटाने या फिर संशोधित करने का वादा कर रहा है, यह तर्क देते हुए कि निषेध से गोपनीय शराब कारोबार और तस्करी को बल मिला है।
राजस्व की दृष्टि से यह नीति राज्य के लिए भारी पड़ रही है। पहले दीर्घकाल में शराब एवं एक्साइज पर बढ़ती आय को कट्टर सामाजिक सुधार के नाम पर छोड़ा गया—आज उसी आय को खोने के कारण बजट‑ दबाव सामने आ रहा है। साथ ही मादक पदार्थों की तस्करी और अवैध बिक्री का नेटवर्क फैल गया है। मुख्य सामाजिक वैज्ञानिकों के अनुसार, “राजस्व जो सरकारी खज़ाने में जाना था, आज भूमिगत अर्थव्यवस्था को जा रहा है।”
प्रशासनिक चुनौती भी कम नहीं है—घरेलू शराब, मादक पदार्थों की तस्करी, पुलिस‑निगरानी का भ्रष्टाचार और निषेध कानून के कड़े दंड से लोग अपराधी बन रहे हैं। उदाहरण के लिए, अल्पसंख्यक एवं पिछड़े वर्ग के लोगों में गिरफ्तारियों की संख्या अपेक्षाकृत अधिक रही है।
चुनावी मोर्चे पर निषेध नीति न सिर्फ मतदाताओं के बीच विभाजन खड़ा कर रही है बल्कि परिवारों के भीतर भी अलग राय देखने को मिल रही है। एक ही घर में पत्नी इस नीति का समर्थन करती नजर आती है, वहीं पति निषेध हटाने की मांग कर रहा होता है। ऐसी स्थिति में यह नीति नीतीश कुमार के लिए तलवार की धार साबित हो सकती है।
यदि सरकार इस मुद्दे को हल करने में कामयाब होती है—निषेध को संशोधित करना, तस्करी‑नियंत्रण को सख्त करना और वैकल्पिक आय‑स्रोत प्रदान करना—तो उसकी सामाजिक स्वीकार्यता बनी रह सकती है। लेकिन यदि यह विभाजन गहरा गया और मतदाता नीति की वजह से पलटे, तो राजनीतिक रूप से इसकी प्रतिक्रिया बड़े पैमाने पर हो सकती है।
चुनाव‑परिप्रेक्ष्य में यह देखना होगा कि क्या निषेध के समर्थक मतदाता महिलाओं में बढ़ते समर्थन के कारण सरकार को मजबूती देंगे या निषेध से नाराज पुरुष एवं तटस्थ मतदाता विपक्ष के समर्थन में आ जाएंगे। यह पहल सामाजिक सुधार और राजस्व‑प्रबंधन के बीच संतुलन की बड़ी परीक्षा साबित हो रही है।
