आरा/पटना — बिहार का शाहाबाद क्षेत्र, जो कभी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) का मजबूत गढ़ माना जाता था, पिछले विधानसभा चुनाव (2020) में इस गठबंधन के लिए सबसे कमजोर कड़ी साबित हुआ था। उस चुनाव में एनडीए को इस इलाके की 22 सीटों में से सिर्फ दो सीटें मिली थीं। अब, जब अगले विधानसभा चुनाव से पहले राजनीतिक समीकरण एक बार फिर बदल रहे हैं, तो सवाल उठ रहा है — क्या शाहाबाद में एनडीए अपनी खोई हुई जमीन फिर से हासिल कर पाएगा?
शाहाबाद क्षेत्र में भोजपुर, बक्सर, कैमूर और रोहतास जिले शामिल हैं। यह इलाका जातीय रूप से अत्यंत विविध और राजनीतिक रूप से सजग माना जाता है। यहां यादव, राजपूत, कुशवाहा और दलित समुदायों का प्रभाव काफी गहरा है। यही वजह है कि हर चुनाव में यह क्षेत्र राज्य की सत्ता का रुख तय करने में बड़ी भूमिका निभाता रहा है।
2020 में इस क्षेत्र में राजद महागठबंधन ने लगभग सभी सीटों पर कब्जा जमाया था, जबकि जदयू और भाजपा का प्रदर्शन उम्मीद से बहुत कमजोर रहा। जदयू कार्यकर्ताओं का मानना है कि उस समय “स्थानीय असंतोष” और “लोजपा के उम्मीदवारों द्वारा वोट विभाजन” के कारण एनडीए को नुकसान हुआ था।
2024 के लोकसभा चुनावों में एनडीए ने कुछ हद तक अपनी साख फिर से लौटाई, और अब गठबंधन को उम्मीद है कि चिराग पासवान और उपेंद्र कुशवाहा की वापसी इस बार समीकरणों को उनके पक्ष में झुका सकती है।
लोजपा (रामविलास) के प्रमुख चिराग पासवान ने पहले एनडीए छोड़कर अलग राह पकड़ी थी, लेकिन अब वे फिर से गठबंधन में लौट आए हैं। उनके पिता रामविलास पासवान का इस क्षेत्र में खासा प्रभाव रहा है, खासकर अनुसूचित जाति मतदाताओं पर।
वहीं, राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (RLSP) के संस्थापक और पूर्व केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा का जदयू के साथ दोबारा आना कुशवाहा (कोइरी) वोट बैंक को एनडीए के पक्ष में जोड़ सकता है।
एक जदयू नेता ने नाम न छापने की शर्त पर कहा,
“2020 में हमारा संगठन कमजोर था और वोट बिखरे हुए थे, लेकिन अब जमीनी स्तर पर तालमेल बेहतर है। चिराग जी और कुशवाहा जी के आने से समीकरण साफ तौर पर बदले हैं।”
दूसरी ओर, राजद और कांग्रेस का गठबंधन इस बार शाहाबाद में अपनी पकड़ बरकरार रखने की कोशिश में है। राजद स्थानीय बेरोजगारी, किसानों की समस्याओं और शिक्षा संस्थानों की बदहाली जैसे मुद्दों को उठा रही है।
राजद के एक कार्यकर्ता का कहना है कि, “लोग विकास नहीं, भरोसे पर वोट देते हैं। पिछली बार एनडीए ने वादे किए, लेकिन रोजगार और महंगाई के मुद्दे हल नहीं हुए।”
स्थानीय मतदाताओं में भी इस बार मिश्रित भावनाएँ दिख रही हैं। बक्सर निवासी शिक्षक विजय कुमार कहते हैं, “2020 में लोगों ने बदलाव चाहा, अब वे देखना चाहते हैं कि गठबंधन किस हद तक साथ मिलकर काम कर सकता है।”
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि शाहाबाद में जातीय समीकरण अब भी निर्णायक रहेंगे, लेकिन दलों की आंतरिक एकता भी बड़ा फैक्टर बनेगी।
राजनीतिक विश्लेषक डॉ. अरुण सिंह का कहना है कि,
“शाहाबाद में एनडीए के लिए सबसे बड़ा चैलेंज अपनी पुरानी विश्वसनीयता वापस पाना है। लोजपा और जदयू में बेहतर समन्वय दिखा तो परिणाम बदल सकते हैं, लेकिन छोटी गलती भी यहां महंगी पड़ सकती है।”
बिहार के शाहाबाद क्षेत्र में आने वाले चुनाव केवल सीटों की लड़ाई नहीं, बल्कि राजनीतिक अस्तित्व और विश्वास की परीक्षा भी होंगे।
जहां एनडीए उम्मीद कर रहा है कि “पुराने साथी” वापसी का रास्ता खोलेंगे, वहीं विपक्ष जनता के असंतोष को मुद्दा बनाकर मैदान में उतर रहा है।
फिलहाल, शाहाबाद की राजनीतिक हवा धीरे-धीरे बदल रही है, लेकिन यह बदलाव किस दिशा में जाएगा, यह आने वाले महीनों में मतदाता तय करेंगे।
