राज्यसभा के नए सभापति के रूप में अपनी पहली बैठक में सी.पी. राधाकृष्णन ने सदन में मर्यादा और अनुशासन बनाए रखने पर जोर दिया। उन्होंने सभी दलों के नेताओं से आग्रह किया कि वे संसदीय संवाद की गरिमा का पालन करें और “लक्ष्मण रेखा” का सम्मान करें।
सत्तारूढ़ दल और विपक्ष के नेताओं की मौजूदगी में हुई इस बैठक को सकारात्मक शुरुआत माना जा रहा है। राधाकृष्णन ने कहा कि संसद लोकतंत्र का मंदिर है और संवाद की शालीनता लोकतांत्रिक परंपराओं की आत्मा है। उन्होंने कहा, “राजनीति में मतभेद स्वाभाविक हैं, लेकिन संवाद की जगह अवरोध नहीं ले सकता।”
बैठक में सभापति ने सभी दलों की राय सुनी और आश्वासन दिया कि सदन के सुचारू संचालन और विपक्ष की सक्रिय भागीदारी के लिए दिए गए सभी सुझावों पर गंभीरता से विचार किया जाएगा। कई नेताओं ने इसे स्वागत योग्य पहल बताया और उम्मीद जताई कि उनके नेतृत्व में राज्यसभा में सहयोग और समझदारी का नया दौर शुरू होगा।
हाल के वर्षों में बार-बार होने वाले हंगामों और स्थगनों के बीच राधाकृष्णन का यह संदेश महत्वपूर्ण माना जा रहा है। उनका “लक्ष्मण रेखा” वाला संकेत इस बात की याद दिलाता है कि मतभेदों के बावजूद संसदीय आचरण की मर्यादा बनी रहनी चाहिए।
राधाकृष्णन ने यह भी कहा कि लोकतंत्र में असहमति की आवाज उतनी ही जरूरी है जितनी शासन की। उन्होंने सांसदों से अपील की कि वे अपनी ऊर्जा नीति-निर्माण, विधायी विमर्श और जवाबदेही पर केंद्रित करें, न कि राजनीतिक टकराव पर।
विपक्षी नेताओं ने भी सभापति की इस पहल की सराहना की। एक वरिष्ठ नेता ने कहा, “हम सभापति की समावेशी सोच का स्वागत करते हैं। विपक्ष का काम अवरोध नहीं, बल्कि जवाबदेही सुनिश्चित करना है।”
राधाकृष्णन का नेतृत्व संतुलन और संवाद पर आधारित दिख रहा है — अनुशासन की सीमाएँ तय करते हुए संवाद को प्रोत्साहन देना। उनकी यह सोच संसद की उस परंपरा को पुनर्जीवित करने की दिशा में है जहाँ विचार-विमर्श गरिमा और सहमति के साथ होता था।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि अगर यह सकारात्मक रुख जारी रहा, तो आने वाले सत्रों में संसद की कार्यवाही में बेहतर सहयोग देखने को मिल सकता है। “यह संवाद का स्वर बदलने की शुरुआत है,” एक राजनीतिक टिप्पणीकार ने कहा। “सभापति संसद को नीतिगत विमर्श का मंच बनाना चाहते हैं, न कि प्रदर्शन का।”
आगामी विधायी सत्र के साथ संसद के सामने बड़ी चुनौतियाँ हैं, लेकिन राधाकृष्णन का संदेश शायद उस दिशा में पहला कदम है — जहाँ संसद फिर से राष्ट्र की सबसे ऊँची विचार-विमर्श की संस्था बन सके।
