बिहार का सीमांचल क्षेत्र — जिसमें किशनगंज, अररिया, पूर्णिया और कटिहार जैसे जिले शामिल हैं — इन दिनों एक नई राजनीतिक दिशा की ओर बढ़ रहा है। “घुसपैठिया” और मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) जैसे विवादों के बीच, यहां के अल्पसंख्यक समुदाय अब अपनी राजनीति को मुख्यधारा से जोड़ने की मांग कर रहे हैं, न कि केवल पहचान-आधारित राजनीति तक सीमित रहने की।
लंबे समय तक यह इलाका कांग्रेस और राजद जैसी धर्मनिरपेक्ष पार्टियों का मजबूत गढ़ माना जाता रहा है। लेकिन पिछले विधानसभा चुनाव में AIMIM की अप्रत्याशित सफलता ने पारंपरिक समीकरणों को हिला दिया। यह नतीजे इस बात का संकेत थे कि अब मतदाता केवल नारेबाज़ी नहीं, बल्कि ठोस प्रतिनिधित्व और विकास चाहते हैं।
पूर्णिया के व्यापारी इमरान अहमद कहते हैं, “हमने कई नेताओं को समर्थन दिया, जो चुनाव के बाद कभी वापस नहीं आए। अब हमें ऐसे प्रतिनिधि चाहिए जो हमारे विकास की बात करें, सिर्फ धर्म की नहीं।”
सीमांचल के लोगों की प्राथमिकताएं अब स्पष्ट हैं — बेरोजगारी, बाढ़, शिक्षा और रोज़गार जैसे मुद्दे केंद्र में हैं। यहाँ के युवा अब बेहतर अवसरों की तलाश में पलायन नहीं, बल्कि परिवर्तन चाहते हैं।
“घुसपैठिया” पर जारी राजनीतिक बयानबाज़ी को लेकर भी लोगों में नाराज़गी है। स्थानीय शिक्षक मोहम्मद आरिफ कहते हैं, “यह इलाका हर बार किसी विवाद में घसीटा जाता है। लोग यहां मेहनती हैं, लेकिन उन्हें पहचान के बजाय शक की नज़र से देखा जाता है। यह अब बदलना चाहिए।”
SIR प्रक्रिया के दौरान मतदाता सूची में संशोधन को लेकर कुछ आशंकाएं ज़रूर रहीं, लेकिन अब नागरिक संगठनों ने लोगों में जागरूकता फैलाकर उन्हें दस्तावेज़ों की पुष्टि करने के लिए प्रेरित किया है। इससे मतदाताओं में भरोसा बढ़ा है कि लोकतंत्र में उनकी भागीदारी सुरक्षित है।
राजनीतिक रूप से सीमांचल अब हर पार्टी के लिए अहम बन चुका है। बीजेपी-जे.डी.यू. गठबंधन जहां अपने प्रभाव को बनाए रखने की कोशिश कर रहा है, वहीं विपक्षी दल अल्पसंख्यक और पिछड़े वर्गों के मतों को एकजुट करने की रणनीति बना रहे हैं। AIMIM की पिछली सफलता ने यह साबित किया कि समुदाय-आधारित पार्टियां बदलाव ला सकती हैं, लेकिन लंबे समय तक टिके रहने के लिए उन्हें विकास को केंद्र में रखना होगा।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि इस बार सीमांचल का मतदाता विकास और रोजगार को प्राथमिकता देगा, न कि धार्मिक या जातीय नारों को। पटना स्थित एक राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं, “अब यह तय होगा कि सीमांचल की आवाज़ बिहार की मुख्यधारा की राजनीति का हिस्सा बनती है या नहीं। यहां के लोग अलगाव नहीं, समान भागीदारी चाहते हैं।”
जैसे-जैसे बिहार में चुनावी सरगर्मी बढ़ रही है, सीमांचल अपने सबसे अहम दौर में है। सवाल अब यह नहीं कि कौन प्रतिनिधित्व करेगा, बल्कि यह है कि कैसे करेगा — विकास, शिक्षा और समानता के साथ। अगर यह नई सोच जारी रही, तो सीमांचल आने वाले समय में समावेशी राजनीति की नई परिभाषा लिख सकता है।
