नई दिल्ली: भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI) ने अपने गठन के 100 वर्ष पूरे कर लिए हैं। इस ऐतिहासिक अवसर पर पार्टी नेतृत्व ने जहां अपने वैचारिक योगदान और संघर्षपूर्ण विरासत को याद किया, वहीं बदलते सामाजिक, आर्थिक और तकनीकी परिदृश्य में वामपंथी राजनीति की चुनौतियों को भी खुले तौर पर स्वीकार किया। पार्टी के महासचिव डी राजा ने स्पष्ट कहा कि मार्क्सवादी-लेनिनवादी विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता बनी हुई है, लेकिन उसे आज के भारत की वास्तविकताओं के अनुसार लागू करना अब एक बड़ी आवश्यकता बन चुका है।
शताब्दी समारोह के दौरान पार्टी कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों को संबोधित करते हुए डी राजा ने कहा कि जब कार्ल मार्क्स और व्लादिमीर लेनिन ने अपने सिद्धांत विकसित किए थे, उस समय आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जैसी तकनीकें अस्तित्व में नहीं थीं। उन्होंने कहा, “हम सभी मार्क्सवादी विचारधारा और लेनिनवादी दर्शन के प्रति प्रतिबद्ध हैं, लेकिन आज के समय में कम्युनिस्टों को बदलावों का सामना करना होगा और उनके साथ तालमेल बैठाना होगा।” उनके इस बयान को पार्टी के भीतर आत्ममंथन के संकेत के रूप में देखा जा रहा है।
डी राजा ने यह भी स्वीकार किया कि पार्टी के विस्तार और जनाधार में आई गिरावट एक गंभीर मुद्दा है। उनके अनुसार, यह समझना जरूरी है कि पार्टी अपेक्षित रूप से क्यों नहीं बढ़ पाई और किन कारणों से वाम राजनीति का प्रभाव सीमित होता गया। यह बयान ऐसे समय आया है जब भारतीय राजनीति में वाम दलों की संसदीय उपस्थिति और चुनावी प्रभाव पहले की तुलना में काफी कम हो गया है।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना 26 दिसंबर 1925 को कानपुर में हुई थी। आज़ादी से पहले और उसके बाद के दशकों में पार्टी ने मजदूर आंदोलनों, किसान संघर्षों, सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को मजबूत करने में अहम भूमिका निभाई। स्वतंत्रता संग्राम से लेकर भूमि सुधार, श्रमिक अधिकार और संघीय ढांचे की बहसों तक, सीपीआई ने कई महत्वपूर्ण आंदोलनों का नेतृत्व किया।
हालांकि, समय के साथ राजनीतिक परिस्थितियाँ बदलीं। आर्थिक उदारीकरण, वैश्वीकरण और नई तकनीकों के आगमन ने समाज और श्रम संरचना को गहराई से प्रभावित किया। पारंपरिक औद्योगिक मजदूर वर्ग में बदलाव आया और असंगठित क्षेत्र तथा डिजिटल अर्थव्यवस्था का विस्तार हुआ। विशेषज्ञों का मानना है कि इन परिवर्तनों ने वाम दलों के सामने नई वैचारिक और संगठनात्मक चुनौतियाँ खड़ी कर दी हैं।
सीपीआई के शताब्दी वर्ष के कार्यक्रम देशभर में आयोजित किए जा रहे हैं। इनमें रैलियाँ, जनसभाएँ, सांस्कृतिक आयोजन और विचार गोष्ठियाँ शामिल हैं, जिनका उद्देश्य पार्टी की ऐतिहासिक भूमिका को रेखांकित करने के साथ-साथ भविष्य की दिशा पर चर्चा करना है। इन आयोजनों में सामाजिक समानता, श्रमिक अधिकार, किसानों की समस्याएँ और लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा जैसे मुद्दों पर जोर दिया जा रहा है।
तकनीकी बदलाव, विशेषकर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और ऑटोमेशन, आज के दौर की सबसे बड़ी बहसों में शामिल हैं। डी राजा के अनुसार, वामपंथी राजनीति को इन मुद्दों से आंख नहीं चुरानी चाहिए, बल्कि यह समझना चाहिए कि नई तकनीकें रोजगार, उत्पादन और सामाजिक संबंधों को कैसे प्रभावित कर रही हैं। उनका मानना है कि मार्क्सवादी दृष्टिकोण को आधुनिक संदर्भों में पुनर्परिभाषित करना समय की मांग है।
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि सीपीआई का शताब्दी वर्ष केवल अतीत की उपलब्धियों को याद करने का अवसर नहीं है, बल्कि यह आत्ममूल्यांकन और वैचारिक नवीनीकरण का भी क्षण है। आने वाले वर्षों में यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि पार्टी किस तरह अपने मूल सिद्धांतों को बनाए रखते हुए नई पीढ़ी और बदलती सामाजिक-आर्थिक वास्तविकताओं से जुड़ पाती है।
सीपीआई के 100 वर्ष पूरे होना भारतीय राजनीति के लिए एक महत्वपूर्ण पड़ाव है। यह न केवल वाम आंदोलन के इतिहास को रेखांकित करता है, बल्कि भविष्य के लिए यह सवाल भी खड़ा करता है कि क्या पार्टी बदलते समय के साथ खुद को ढालकर एक बार फिर व्यापक राजनीतिक प्रभाव स्थापित कर पाएगी।
