बिहार विधानसभा चुनावों के बीच भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और कांग्रेस के बीच संविधान को लेकर सियासी जंग तेज हो गई है। हालांकि दिलचस्प बात यह है कि दोनों ही राष्ट्रीय दलों ने अनुसूचित जाति (एससी) के लिए आरक्षित अधिकांश सीटें अपने सहयोगी दलों को छोड़ दी हैं। 38 एससी आरक्षित सीटों में से भाजपा और कांग्रेस केवल 11-11 सीटों पर चुनाव लड़ रही हैं, जबकि बाकी सीटें उनके गठबंधन सहयोगियों को दी गई हैं।
2020 के विधानसभा चुनाव में एनडीए ने 38 में से 21 एससी सीटें जीती थीं, जबकि शेष सीटें महागठबंधन के खाते में गई थीं। लेकिन इस बार समीकरण बदल गए हैं। दोनों गठबंधनों में सीट बंटवारे और नेतृत्व को लेकर अंदरूनी खींचतान देखी जा
संविधान पर बहस तब छिड़ी जब कांग्रेस ने भाजपा पर “संवैधानिक मूल्यों को कमजोर करने” का आरोप लगाया। इसके जवाब में भाजपा ने कांग्रेस पर “अंबेडकर की विरासत का राजनीतिक उपयोग” करने का आरोप लगाया।
केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने कहा, “भाजपा ने हमेशा बाबा साहेब अंबेडकर के दृष्टिकोण का सम्मान किया है। कांग्रेस ने सिर्फ राजनीतिक लाभ के लिए उनका नाम इस्तेमाल किया, लेकिन दलितों को सशक्त नहीं किया।”
वहीं बिहार कांग्रेस अध्यक्ष अखिलेश प्रसाद सिंह ने कहा, “भाजपा अंबेडकर की बात करती है लेकिन उन्हीं संस्थाओं को कमजोर करती है जिन्हें उन्होंने बनाया। बिहार के दलित मतदाता जानते हैं कि संविधान की रक्षा कौन कर रहा है।”
एनडीए में भाजपा ने 27 आरक्षित सीटें अपने सहयोगियों — जेडीयू, लोजपा (रामविलास) और हम — को दी हैं। दूसरी ओर, कांग्रेस ने भी महागठबंधन में आरजेडी और वामदलों के लिए समान संख्या में सीटें छोड़ी हैं।
राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार, यह बिहार की गठबंधन राजनीति में क्षेत्रीय दलों की बढ़ती ताकत को दर्शाता है। पटना के राजनीतिक विश्लेषक डॉ. राजेश रंजन ने कहा, “दोनों राष्ट्रीय दल समझते हैं कि मजबूत क्षेत्रीय सहयोगियों के बिना वे आरक्षित सीटों पर अच्छा प्रदर्शन नहीं कर सकते।”
बिहार की लगभग 16% आबादी अनुसूचित जाति की है, जो करीब एक-चौथाई सीटों पर निर्णायक भूमिका निभाती है। पासवान, मुसहर, चमार और धोबी जैसी जातियां परंपरागत रूप से विभिन्न दलों के साथ जुड़ी रही हैं।
एनडीए सहयोगी लोजपा (रामविलास) और हम का दलित मतदाताओं पर खास प्रभाव है। वहीं महागठबंधन में आरजेडी सामाजिक न्याय के एजेंडे के जरिए मुसहर और रविदास समुदायों को आकर्षित करती रही है।
एससी सीटों पर नए सिरे से बंटवारा बिहार की राजनीति में गहराते बदलाव का संकेत है। भाजपा और कांग्रेस जहां विचारधारात्मक मुद्दों पर जोर दे रही हैं, वहीं क्षेत्रीय दल जातीय समीकरणों के जरिए जनाधार मजबूत कर रहे हैं।
डॉ. रंजन के अनुसार, “यह चुनाव विचारधारा का नहीं, प्रतिनिधित्व का चुनाव है। मतदाता देख रहे हैं कि उनके हितों की रक्षा कौन कर सकता है।”
राजनगर, चेनारी और कुटुंबा जैसी सीटों पर दोनों गठबंधन नए और पुराने उम्मीदवारों का मिश्रण उतार रहे हैं। स्थानीय स्तर पर शिक्षा, रोजगार और सामाजिक कल्याण जैसे मुद्दे इस बार प्रमुख रहेंगे।
भाजपा के लिए 2020 में चिराग पासवान के साथ हुए मतभेद के बाद सहयोगियों को एकजुट रखना बड़ी चुनौती है, जबकि कांग्रेस के लिए दलित वोट बैंक को वापस पाना अहम है।
जैसे-जैसे चुनावी अभियान तेज हो रहा है, दोनों ही राष्ट्रीय दल अंबेडकर और संविधान के मुद्दे को आगे रख रहे हैं, लेकिन असली मुकाबला जमीन पर है — जहां जातीय समीकरण और विकास का वादा ही वोट तय करेंगे।
