जैसे-जैसे बिहार विधानसभा चुनाव नजदीक आ रहे हैं, महागठबंधन (राजद और कांग्रेस गठबंधन) की राजनीति एक बार फिर जातीय समीकरणों पर केंद्रित होती दिख रही है।
राष्ट्रीय जनता दल (राजद) ने हमेशा की तरह अपने पारंपरिक यादव वोट बैंक पर भरोसा जताया है। पार्टी की उम्मीदवार सूची में लगभग 36% उम्मीदवार यादव समुदाय से हैं। वहीं, कांग्रेस, राहुल गांधी के “समानुपातिक प्रतिनिधित्व” के विचार के बावजूद, सवर्ण उम्मीदवारों पर अधिक निर्भर नजर आ रही है — लगभग 40% टिकट ब्राह्मण, भूमिहार, राजपूत और कायस्थ समाज को दिए गए हैं।
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि दोनों दलों के उम्मीदवार चयन में उनके जमीनी वोट बैंक की झलक साफ दिखती है। राजद अब भी यादव-मुस्लिम (एमवाई) समीकरण को मजबूत करने में जुटी है, जबकि कांग्रेस पारंपरिक सवर्ण मतदाताओं का भरोसा वापस पाने की कोशिश में है, जो पिछले दो दशकों में भाजपा और जद(यू) की ओर झुक गए थे।
पटना के राजनीतिक विश्लेषक डॉ. रमेश कुमार के अनुसार, “राजद का यादवों पर भरोसा उसकी पहचान की पुनर्पुष्टि है। कांग्रेस की रणनीति बताती है कि वह फिर से सवर्ण मतदाताओं का विश्वास जीतने की कोशिश कर रही है, जो उसके पुराने समर्थन आधार थे।”
राजद की सूची में मुसलमान उम्मीदवारों की संख्या भी उल्लेखनीय है, जिससे पार्टी ने एक बार फिर एमवाई गठजोड़ को मजबूत करने की कोशिश की है। वहीं कांग्रेस संगठनात्मक कमजोरी से जूझते हुए जातीय संतुलन के सहारे मैदान में उतर रही है।
2020 के चुनावों में महागठबंधन ने अच्छा प्रदर्शन किया था, लेकिन सरकार बनाने से रह गया था। इस बार नीतीश कुमार की राजनीतिक स्थिति में बदलाव और भाजपा की आक्रामक रणनीति के बीच, राजद-कांग्रेस गठबंधन एक बार फिर जातीय गणित पर दांव लगा रहा है।
हालांकि, यह रणनीति ऐसे समय में आ रही है जब देश में जाति आधारित जनगणना और राजनीतिक प्रतिनिधित्व पर नई बहस छिड़ी हुई है। राहुल गांधी ने अपनी “भारत जोड़ो न्याय यात्रा” के दौरान सामाजिक न्याय पर जोर दिया था, लेकिन कांग्रेस की सूची में चुनावी यथार्थ ज्यादा प्रभावशाली दिखता है।
एक वरिष्ठ कांग्रेस नेता ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, “हमने सभी वर्गों को प्रतिनिधित्व देने की कोशिश की है, लेकिन हमारी प्राथमिकता जीतने की संभावना पर केंद्रित है।”
राजद के लिए अब भी लालू प्रसाद यादव का प्रभाव गहरा है। तेजस्वी यादव नेतृत्व में पार्टी सामाजिक न्याय के साथ रोजगार और शिक्षा जैसे मुद्दों को भी उठा रही है। लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि जाति आधारित राजनीति की यह परंपरा नए, युवा और आकांक्षी मतदाताओं को आकर्षित करने में असफल हो सकती है।
आने वाले चुनावों में यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या यह जाति-आधारित रणनीति महागठबंधन को मजबूती देगी या बिहार के बदलते राजनीतिक समीकरणों में इसे चुनौती देगी।
