बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में इस बार एक अनोखा ट्रेंड देखने को मिल रहा है। जहां पहले राजनीति में वंशवाद और जातीय समीकरण हावी रहा करते थे, वहीं अब कई पूर्व सिविल सर्वेंट्स—चाहे वे पुलिस अधिकारी हों या राजस्व सेवा से जुड़े अफसर—राजनीतिक अखाड़े में उतर रहे हैं। इनमें वे भी शामिल हैं जिन्होंने अपना पूरा करियर प्रशासनिक सेवा में बिताया और अब जनसेवा का नया रास्ता राजनीति के ज़रिए तलाश रहे हैं।
बिहार की राजनीतिक जमीन पर इस बार कई ऐसे चेहरे दिख रहे हैं जो कभी जनता की समस्याओं का समाधान फाइलों और आदेशों के ज़रिए करते थे, लेकिन अब वे वोट की ताकत से बदलाव लाना चाहते हैं। इन उम्मीदवारों में से कुछ ने हाल ही में सेवानिवृत्ति ली है, तो कुछ पहले से समाजिक कामों में सक्रिय रहे हैं।
इन अफसरों का मानना है कि जब तक नीति बनाने में प्रशासनिक अनुभव नहीं जोड़ा जाएगा, तब तक शासन में वास्तविक सुधार संभव नहीं है। एक पूर्व अधिकारी ने कहा,
“सिस्टम को बदलने की सबसे बड़ी ताकत जनता के बीच से आती है। अगर अनुभव और जनसमर्थन साथ आएं, तो बिहार की तस्वीर बदली जा सकती है।”
राजनीतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर द्वारा स्थापित जन सुराज पार्टी (JSP) ने इस दिशा में बड़ा दांव खेला है। पार्टी ने अपने पहले ही विधानसभा चुनाव में कई पूर्व आईएएस, आईपीएस और आईआरएस अधिकारियों को उम्मीदवार बनाया है।
जन सुराज का दावा है कि उनका उद्देश्य बिहार की राजनीति को “कास्ट और क्लास से परे, क्षमता और ईमानदारी के आधार पर” आगे बढ़ाना है। पार्टी ने इन अफसरों को इसलिए चुना है ताकि शासन में पारदर्शिता और जवाबदेही की नई मिसाल पेश की जा सके।
विशेषज्ञों का कहना है कि इस बदलाव के पीछे तीन मुख्य कारण हैं—
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जनसेवा की निरंतरता: अफसरों को लगता है कि सेवानिवृत्ति के बाद भी वे समाज की सेवा जारी रख सकते हैं।
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राजनीतिक रिक्तता: युवा मतदाताओं के बीच ईमानदार नेतृत्व की खोज ने एक नया अवसर पैदा किया है।
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विकास की दृष्टि: प्रशासनिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवार विकास योजनाओं के क्रियान्वयन में विशेषज्ञता रखते हैं, जो उन्हें अन्य उम्मीदवारों से अलग बनाती है।
इस नए रुझान से पारंपरिक दलों में हलचल मच गई है। अब तक जो सीटें स्थानीय नेताओं या जातीय समीकरणों पर निर्भर थीं, वहां अफसर-उम्मीदवारों की एंट्री से नया समीकरण बन रहा है।
विश्लेषकों का मानना है कि यदि ये उम्मीदवार जनता से जुड़ने में सफल रहे, तो यह बिहार की राजनीति में “व्यवस्था आधारित नेतृत्व” की शुरुआत हो सकती है।
हालांकि, यह राह आसान नहीं है। इन अफसरों को राजनीतिक जमीनी हकीकत से रूबरू होना पड़ रहा है—गांव-गांव की पदयात्राएं, प्रचार रणनीतियाँ और दलगत प्रतिस्पर्धा अब उनकी नई दिनचर्या का हिस्सा हैं।
बिहार के मतदाताओं के बीच इन नए उम्मीदवारों को लेकर जिज्ञासा और उम्मीद दोनों हैं।
दरभंगा के एक स्थानीय शिक्षक ने कहा,
“अगर कोई अफसर भ्रष्टाचार से दूर रहा और काम करने की ईमानदार छवि रखता है, तो जनता उसे जरूर मौका देगी।”
मतदाता अब केवल राजनीतिक भाषणों से नहीं, बल्कि उम्मीदवारों के काम और सोच से प्रभावित हो रहे हैं।
युवा वर्ग में यह चर्चा तेज है कि क्या प्रशासनिक अनुभव राजनीति को नई दिशा दे सकता है।
बिहार के राजनीतिक परिदृश्य में अफसरों का यह प्रवेश एक प्रयोग जैसा है। अगर यह सफल होता है, तो भविष्य में यह ट्रेंड अन्य राज्यों में भी देखने को मिल सकता है। लेकिन अगर ये उम्मीदवार जनता से जुड़ाव नहीं बना पाए, तो यह प्रवृत्ति अस्थायी साबित हो सकती है।
बिहार चुनाव 2025 केवल राजनीतिक दलों की प्रतिस्पर्धा नहीं, बल्कि सोच और दृष्टिकोण की भी लड़ाई बन गया है। पूर्व अफसरों की एंट्री ने इस बार के चुनाव को अलग ही स्वरूप दे दिया है। यह देखना दिलचस्प होगा कि प्रशासनिक अनुभव और राजनीतिक व्यवहार का यह संगम बिहार की जनता को कितना आकर्षित कर पाता है।
जैसा कि एक वरिष्ठ विश्लेषक ने कहा,
“बदलाव तब होता है जब सिस्टम के भीतर से लोग बाहर आकर उसे सुधारने का बीड़ा उठाते हैं। बिहार शायद उसी मोड़ पर खड़ा है।”
