जैसे-जैसे बिहार चुनावी मोड़ पर पहुंच रहा है, एक समय राजनीति की मुख्य धारा में रही शराबबंदी नीति अब एनडीए (NDA) के प्रचार से लगभग गायब हो गई है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अप्रैल 2016 में इस नीति को लागू किया था, जिसका उद्देश्य था महिलाओं पर घरेलू हिंसा को रोकना, पारिवारिक कल्याण बढ़ाना और समाज में अनुशासन लाना। लेकिन नौ साल बाद यह नीति राजनीतिक बोझ बनती जा रही है।
विपक्षी दल, खासकर राजद (RJD) और कांग्रेस, जहां शराबबंदी को चुनावी मुद्दा बना रहे हैं, वहीं एनडीए इसके जिक्र से बच रहा है। इसके पीछे वजह भी गंभीर है। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, बिहार उत्पाद और निषेध अधिनियम के तहत अब तक 12.79 लाख लोगों की गिरफ्तारी हुई है, जिनमें से 85% से अधिक अनुसूचित जाति (SC), अत्यंत पिछड़ा वर्ग (EBC) और अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के हैं।
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि इस नीति के दुष्प्रभावों ने ग्रामीण और पिछड़े वर्गों में नाराज़गी बढ़ाई है — जो एनडीए का पारंपरिक वोट बैंक माने जाते हैं।
राजद नेता तेजस्वी यादव ने हाल ही में एक रैली में कहा, “शराबबंदी कानून गरीबों को परेशान करने का जरिया बन गया है। सरकार ने मजदूरों और आम लोगों को जेल में डाल दिया, लेकिन रसूखदार लोग आज भी अवैध कारोबार चला रहे हैं।”
वहीं, जद(यू) और भाजपा इस नीति का समर्थन जारी रखते हैं, लेकिन इसे चुनावी मुद्दा बनाने से बच रहे हैं। एक वरिष्ठ जद(यू) नेता ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, “नीति का उद्देश्य सही था, लेकिन इसके अमल में कई समस्याएं आईं। अब विकास और रोजगार जैसे मुद्दों पर बात करना ज्यादा फायदेमंद है।”
अप्रैल 2016 में लागू हुई बिहार उत्पाद अधिनियम के तहत शराब के निर्माण, बिक्री और सेवन पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया गया था। शुरुआती दौर में इसे महिलाओं के समर्थन से “सामाजिक क्रांति” कहा गया, लेकिन समय के साथ इसके दुष्प्रभाव सामने आने लगे।
राज्य में अवैध शराब माफिया सक्रिय हो गए और कई होच त्रासदियों में सैकड़ों लोगों की जानें गईं। आलोचकों का कहना है कि इस कानून ने न केवल गरीब परिवारों को प्रभावित किया बल्कि न्याय व्यवस्था और जेलों पर भी अतिरिक्त बोझ डाला।
2022 में सरकार ने कानून में संशोधन कर पहली बार पकड़े गए लोगों पर केवल जुर्माना लगाने का प्रावधान किया, लेकिन विपक्ष का कहना है कि यह “आधा-अधूरा सुधार” है और इससे समस्या खत्म नहीं हुई।
विश्लेषकों के अनुसार, एनडीए की चुप्पी चुनावी गणित से जुड़ी है। चूंकि अधिकांश गिरफ्तार लोग पिछड़े और दलित वर्ग से हैं, इसलिए इस मुद्दे पर चर्चा से पार्टी का वोट बैंक प्रभावित हो सकता है।
राजनीतिक विश्लेषक एन.के. सिंह का कहना है, “शराबबंदी नीतीश कुमार के लिए दोधारी तलवार बन गई है। महिलाएं अब भी इसके नैतिक उद्देश्य की सराहना करती हैं, लेकिन गरीब वर्ग पर पड़े असर ने उनकी लोकप्रियता घटाई है।”
दूसरी ओर, विपक्ष इसे एक सशक्त चुनावी हथियार के रूप में देख रहा है। राजद और कांग्रेस इसे सामाजिक न्याय के मुद्दे से जोड़कर जनता के बीच ले जा रहे हैं — एक ऐसा नैरेटिव जो बिहार की राजनीति में गहराई से जड़ें जमाए हुए है।
शराबबंदी कानून बिहार की राजनीति में इस बात का प्रतीक बन गया है कि नीतिगत आदर्श और जमीनी हकीकत के बीच कितना फासला है। यह नीति अब भी लागू है, लेकिन चुनावी मंचों पर यह एक अनकही सच्चाई बनकर रह गई है — जिसे एनडीए न तो पूरी तरह छोड़ सकता है, न खुलकर स्वीकार कर सकता है।
