भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) एक बड़े राजनीतिक विवाद में घिर गई है, जब उसने पालघर के एनसीपी (एसपी) नेता काशीनाथ चौधरी को पार्टी में शामिल करने की प्रक्रिया शुरू की। चौधरी को भाजपा ने पहले 2020 के पालघर साधु lynching मामले का “मुख्य आरोपी” बताया था, लेकिन अब उन्हीं को शामिल करने की कोशिश विपक्ष और सामाजिक संगठनों की आलोचना का कारण बन गई। बढ़ते विरोध के बीच भाजपा ने चौधरी का प्रवेश रोक दिया है, जिसे राजनीतिक रूप से एक बड़ा कदम पीछे हटने के रूप में देखा जा रहा है।
पिछले कुछ दिनों में महाराष्ट्र की राजनीति में पहले से ही बढ़े तनाव के बीच, इस मुद्दे ने विवाद को और तीखा कर दिया है। पालघर क्षेत्र में प्रभाव रखने वाले चौधरी किसी भी अदालत द्वारा दोषी घोषित नहीं हुए हैं, लेकिन मामले से उनका नाम जुड़ना हमेशा से विवाद का विषय रहा है। ऐसे में भाजपा, जिसने पहले उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई की मांग की थी, अब अपनी ही स्थिति पर सवालों का सामना कर रही है।
महा विकास आघाड़ी (एमवीए) के दलों ने इस मुद्दे को तुरंत भुनाया और भाजपा पर आरोप लगाया कि वह चुनावी फायदे के लिए अपने ही नैतिक मानकों से समझौता कर रही है। एमवीए नेताओं का कहना है कि भाजपा की पहले की बयानबाजी और अब की रणनीति के बीच विरोधाभास ने “विश्वसनीयता संकट” पैदा कर दिया है।
इधर भाजपा के अंदर से भी स्पष्ट किया गया कि विभिन्न राजनीतिक संवेदनशीलताओं को देखते हुए चौधरी का प्रवेश रोकने का निर्णय लिया गया है। पार्टी के एक वरिष्ठ रणनीतिकार ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, “यह मामला राष्ट्रीय स्तर की संवेदनशीलता से जुड़ा है। पार्टी कोई ऐसा संदेश नहीं देना चाहती, जिससे पहले दिए गए रुख पर सवाल उठें। इसलिए यह निर्णय फिलहाल स्थगित किया गया है।”
पालघर के स्थानीय नेता, जिनका आदिवासी और ग्रामीण मतदाताओं पर मजबूत प्रभाव है, चुनावी रणनीति में अहम भूमिका निभाते हैं। चौधरी की जमीनी पकड़ को देखते हुए कई राजनीतिक दल उन्हें अपने साथ जोड़ने की कोशिश करते रहे हैं। लेकिन lynching विवाद ने उनके राजनीतिक सफर को जटिल बना दिया है।
विशेषज्ञों का मानना है कि यह प्रकरण महाराष्ट्र की जटिल और अस्थिर राजनीतिक परिस्थिति की झलक है। आने वाले स्थानीय निकाय और विधानसभा चुनावों से पहले सभी दल अपनी रणनीति को सावधानी से तैयार कर रहे हैं। ऐसे में उम्मीदवार चयन और नैतिक साख जैसे मुद्दे राजनीतिक त्रिकोण में बड़ा महत्व रखते हैं।
पालघर मामला स्वयं में भाजपा के लिए संवेदनशील रहा है। 2020 में गढ़चिंचले गांव में दो साधुओं और उनके ड्राइवर की भीड़ द्वारा हत्या ने पूरे देश में आक्रोश पैदा किया था। उस समय भाजपा ने कड़ी कार्रवाई की मांग की थी। अब विपक्ष उसी बयानबाजी को भाजपा के वर्तमान कदम के साथ जोड़कर सवाल उठा रहा है।
एमवीए के एक वरिष्ठ प्रवक्ता ने टिप्पणी की, “जब कोई पार्टी किसी व्यक्ति को गंभीर मामले का आरोपी कहे और कुछ समय बाद उसे अपने संगठन में लेने लगे, तो जनता ऐसे विरोधाभासों पर सवाल तो उठाएगी ही।”
भाजपा का यह कदम पीछे हटना दर्शाता है कि नेतृत्व ने राजनीतिक जोखिम को पहचान लिया है। विशेषज्ञों का कहना है कि पार्टी अब स्थिति को सावधानी से संभालने और संदेश को दोबारा स्पष्ट करने की कोशिश करेगी। हालांकि विवाद ने पहले ही भाजपा की स्थिति को चुनौतीपूर्ण बना दिया है, खासकर जब वह भविष्य के चुनावों के लिए एकजुट छवि प्रस्तुत करना चाहती है।
राजनीतिक जवाबदेही, निरंतरता और उम्मीदवार चयन की नैतिकता—इन सभी मुद्दों पर यह प्रकरण बड़ी बहस को जन्म दे रहा है, और महाराष्ट्र की राजनीति पर इसका असर लंबे समय तक देखने को मिल सकता है।
