
मतदाता सूची में हेरफेर के आरोपों ने एक बार फिर भारत निर्वाचन आयोग (ईसीआई) को न्यायिक निगरानी के दायरे में ला दिया है। केरल से लेकर महाराष्ट्र तक कई राज्यों में याचिकाएँ दायर की गई हैं। अदालतों ने जहाँ निर्वाचन आयोग की भूमिका और प्रक्रियाओं को सही ठहराया है, वहीं मतदान धोखाधड़ी रोकने के लिए और कड़े प्रावधानों की आवश्यकता पर भी जोर दिया है।
हाल के मामलों में सबसे अधिक विवाद “अनुपस्थित, स्थानांतरित और मृत” श्रेणी में नामों के विलोपन को लेकर है। याचिकाकर्ताओं का आरोप है कि इस प्रक्रिया में कभी-कभी बड़ी संख्या में वास्तविक मतदाताओं के नाम भी हटा दिए जाते हैं, जिससे वे अपने मताधिकार से वंचित रह जाते हैं।
अदालतों ने आयोग की संवैधानिक स्थिति को कमजोर किए बिना सतर्क रुख अपनाया है। कई फैसलों में न्यायाधीशों ने दोहराया है कि ईसीआई ही स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने वाला संवैधानिक निकाय है। लेकिन इसके साथ ही यह भी स्पष्ट किया गया है कि मतदाता सूचियों में अधिक पारदर्शिता और जवाबदेही आवश्यक है।
हाल ही में एक न्यायिक टिप्पणी में कहा गया, “मतदाता सूची की पवित्रता प्रतिनिधि लोकतंत्र का मूल है। किसी भी त्रुटि, चाहे वह जानबूझकर हो या अनजाने में, नागरिकों के चुनावी प्रणाली पर विश्वास को कमजोर कर सकती है।” यह दृष्टिकोण अदालतों के उस प्रयास को दर्शाता है जिसमें आयोग की स्वायत्तता और मतदाताओं के अधिकार दोनों की रक्षा हो।
पिछले चुनावों में भी मतदाता सूची विवाद का केंद्र रही है। राजनीतिक दल अक्सर एक-दूसरे पर आरोप लगाते रहे हैं कि मतदाता सूची में हेरफेर कर चुनावी बढ़त हासिल की गई। इनमें नाम जोड़ने से लेकर विशेष समुदायों को सूची से बाहर करने तक के आरोप शामिल रहे हैं। हालाँकि इनमें से अधिकांश आरोप सिद्ध नहीं हुए, लेकिन यह प्रक्रिया की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े करते रहे हैं।
निर्वाचन आयोग का कहना है कि उसकी प्रक्रियाएँ पूरी तरह पारदर्शी हैं और नाम विलोपन केवल निर्धारित प्रक्रिया के बाद ही किए जाते हैं। इसमें घर-घर सत्यापन और सार्वजनिक नोटिस शामिल होता है। फिर भी, जब बड़ी संख्या में लोग मतदान से वंचित होते हैं तो आलोचना तेज हो जाती है।
अदालतों की भूमिका अब प्रक्रिया की संरक्षक की बन गई है। वे आयोग को तकनीकी सुधार और शिकायत निवारण तंत्र को मजबूत करने की दिशा में प्रेरित कर रही हैं। आधार-आधारित सत्यापन (सुरक्षा प्रावधानों के साथ), डिजिटल प्रणाली और त्वरित शिकायत निपटान जैसे सुझाव इसी का हिस्सा हैं।
कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि अदालतें आयोग की स्वतंत्रता पर सवाल नहीं उठा रहीं, बल्कि उसे उसकी जिम्मेदारी का अहसास करा रही हैं। “स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव लोकतंत्र की नींव हैं। मतदाता सूची में छोटी सी चूक भी गंभीर असर डाल सकती है,” एक संवैधानिक विशेषज्ञ ने कहा।
मुख्य चिंता यह है कि यदि चुनावी प्रक्रिया की निष्पक्षता पर संदेह बढ़ा तो लोकतांत्रिक संस्थाओं पर जनता का विश्वास कमजोर हो सकता है। आगामी आम चुनावों और राज्य चुनावों के मद्देनज़र ईसीआई और न्यायपालिका दोनों पर दबाव है कि वे मतदाता सूचियों को अधिक सटीक, पारदर्शी और सुलभ बनाएँ।
अंततः, अदालतों और निर्वाचन आयोग के बीच यह संतुलन भारतीय लोकतंत्र की विशेषता को दर्शाता है—संस्थागत स्वायत्तता और न्यायिक निगरानी का मेल। आयोग चुनावी प्रक्रिया का नियंत्रण रखता है, लेकिन न्यायपालिका की चेतावनी याद दिलाती है कि नागरिकों का विश्वास ही लोकतंत्र का असली पैमाना है।