बिहार में 2025 के विधानसभा चुनावों का माहौल गर्म है। इस बार का चुनाव केवल सत्ता परिवर्तन का नहीं, बल्कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के राजनीतिक करियर की सबसे बड़ी परीक्षा माना जा रहा है। लगभग दो दशकों से राज्य की राजनीति के केंद्र में रहे नीतीश अब कई मोर्चों पर चुनौतियों का सामना कर रहे हैं — फ्रीबी योजनाओं की बौछार, गठबंधन की पेचीदगियाँ, जातिगत समीकरणों का पुनर्गठन, और सबसे अहम, प्रशांत किशोर (PK) का नया राजनीतिक समीकरण।
नीतीश कुमार, जिन्होंने कई बार सत्ता बदली और गठबंधन तोड़े-जोड़े, अब एक ऐसे दौर में हैं जहाँ जनता उनके विकास मॉडल और प्रशासनिक स्थिरता दोनों का मूल्यांकन कर रही है। उनके सामने सवाल यह है कि क्या लंबे शासनकाल के बावजूद वे जनता में अपनी स्वीकृति बनाए रख पाएँगे।
राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार, यह चुनाव “अंतिम परीक्षा” की तरह है — यदि वे सफल होते हैं तो बिहार में फिर एक बार स्थिर नेतृत्व का संदेश जाएगा, लेकिन हार की स्थिति में यह एक युग का अंत भी साबित हो सकता है।
चुनाव से ठीक पहले राज्य सरकार ने कई नई कल्याणकारी योजनाओं की घोषणा की है। महिलाओं, किसानों और युवाओं को लाभ पहुँचाने के लिए नकद सहायता और सब्सिडी बढ़ाई गई है।
विपक्ष इन योजनाओं को “चुनावी लालच” बता रहा है, जबकि सरकार का तर्क है कि ये सामाजिक सशक्तिकरण के उद्देश्य से लागू की गई हैं।
एक वरिष्ठ अधिकारी के अनुसार, “सरकार चाहती है कि हर वर्ग को यह महसूस हो कि राज्य विकास की मुख्यधारा में है — यही नीतीश कुमार का असली संदेश है।”
इस बार बिहार में राजनीतिक समीकरण काफी उलझे हुए हैं।
जहाँ एक ओर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) अपने पुराने सहयोगियों के साथ तालमेल बनाने में जुटा है, वहीं विपक्षी महागठबंधन जनता दल (राजद), कांग्रेस और अन्य क्षेत्रीय दलों के साथ रणनीति तय कर रहा है।
इसी बीच छोटे लेकिन प्रभावशाली दल जैसे चिराग पासवान की लोजपा और मुकेश साहनी का विकासशील इंसान पार्टी (VIP) राज्य की राजनीति में “किंगमेकर” की भूमिका निभा सकते हैं।
इन दलों के जातिगत प्रभाव से कई सीटों पर नतीजे बदल सकते हैं।
बिहार की राजनीति सदैव जातीय समीकरणों पर आधारित रही है — और 2025 का चुनाव भी इससे अलग नहीं।
नीतीश कुमार की मुख्य ताकत अब तक अति पिछड़ा वर्ग (EBC) और महिला मतदाता रहे हैं।
वहीं, यादव, मुस्लिम और दलित मतदाताओं का झुकाव पारंपरिक रूप से विपक्षी खेमे की ओर रहा है।
इस बार सभी दलों की रणनीति इन परिधीय वोट बैंकों को साधने पर केंद्रित है।
राजनीतिक जानकारों का मानना है कि “बिहार का हर चुनाव जातीय समीकरणों की परीक्षा बन जाता है, लेकिन इस बार नए चेहरे और राजनीतिक बदलाव इसे और अप्रत्याशित बना देंगे।”
राजनीतिक रणनीतिकार से नेता बने प्रशांत किशोर (PK) इस चुनाव में सबसे दिलचस्प फैक्टर बनकर उभरे हैं।
उनकी पार्टी जन सुराज राज्य के विभिन्न जिलों में पैठ बना रही है।
PK खुद किसी गठबंधन का हिस्सा नहीं हैं, परंतु उनका संगठन युवाओं और शिक्षित वर्गों में धीरे-धीरे प्रभावी होता दिख रहा है।
PK ने हाल ही में कहा, “हम बिहार को राजनीति के बजाय नीतियों से चलाने की बात करते हैं। जनता बदलाव चाहती है, और यह बदलाव केवल शब्दों से नहीं, काम से आएगा।”
उनकी यह रणनीति पारंपरिक दलों की चिंता बढ़ा रही है, क्योंकि उनका प्रभाव “कट वोट” की स्थिति पैदा कर सकता है।
चुनाव आयोग के अनुसार, मतदान नवंबर के पहले सप्ताह में प्रस्तावित है और परिणाम मध्य नवंबर तक घोषित किए जाएंगे।
इस बार का मतदान मुद्दों, व्यक्तित्वों और योजनाओं का संगम होगा।
एक ओर सत्ता पक्ष विकास योजनाओं और स्थिर शासन का दावा करेगा, तो दूसरी ओर विपक्ष बेरोज़गारी, महंगाई और कानून-व्यवस्था को मुख्य मुद्दा बनाएगा।
राजनीति के जानकारों का कहना है कि “यह चुनाव सिर्फ सत्ता परिवर्तन का नहीं, बल्कि बिहार की राजनीति की दिशा तय करेगा। यह तय करेगा कि क्या राज्य पारंपरिक समीकरणों से आगे बढ़ सकता है या नहीं।”
