
पिछले तीन दशकों से सोनम वांगचुक लद्दाख की आवाज़ माने जाते रहे हैं। शुरुआत में उन्हें एक ऐसे नवोन्मेषक के रूप में पहचाना गया जो स्थानीय पारिस्थितिक समस्याओं के लिए व्यावहारिक समाधान खोजते थे। आज वही वांगचुक पर्यावरण, शासन और लद्दाखी लोगों के अधिकारों को लेकर सीधे दिल्ली से टकरा रहे हैं। उनका यह सफर—नवोन्मेषक से आंदोलनकारी तक—सिर्फ उनकी व्यक्तिगत सोच का विकास नहीं बल्कि लद्दाख की बदलती राजनीतिक परिस्थितियों का भी प्रतिबिंब है।
1990 के दशक में वांगचुक शिक्षा और पर्यावरण के क्षेत्र में अपने काम के कारण सुर्खियों में आए। वैकल्पिक स्कूलों और अनोखे शिक्षण तरीकों से उन्होंने लद्दाखी छात्रों को मुख्यधारा की शिक्षा से जोड़ने की राह आसान की।
2013 में उन्होंने “आइस स्तूपा” परियोजना शुरू की—एक कृत्रिम हिमनद जो सर्दियों का पानी जमा कर गर्मियों में किसानों के काम आता है। इस आविष्कार ने न सिर्फ वैश्विक पहचान दिलाई बल्कि लद्दाख के किसानों की पानी की समस्या भी काफी हद तक हल की। उस समय दिल्ली के लिए वांगचुक सतत विकास और स्थानीय समाधान का प्रतीक थे।
हालात 2019 में अनुच्छेद 370 हटने के बाद बदले। जम्मू-कश्मीर के पुनर्गठन के साथ लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा मिला। उम्मीद थी कि अब प्रत्यक्ष शासन से विकास और संरक्षण दोनों सुनिश्चित होंगे।
लेकिन चार साल बाद कई लद्दाखियों का मानना है कि वादे अधूरे हैं। वांगचुक ने केंद्र की नीतियों के खिलाफ मुखर होकर आवाज़ उठाई। उन्होंने भूमि, संस्कृति और संसाधनों की रक्षा के लिए छठी अनुसूची के तहत संवैधानिक सुरक्षा की मांग की। हाल ही में उनके उपवास ने इन मुद्दों को राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में ला दिया।
“विकास पर्यावरण और संस्कृति की कीमत पर नहीं होना चाहिए। लद्दाखियों को अपनी भूमि और पहचान की सुरक्षा मिलनी ही चाहिए,” वांगचुक ने अपने एक संबोधन में कहा।
सरकार के लिए वांगचुक की आलोचना एक चुनौती भी है और असहजता भी। अधिकारियों का कहना है कि केंद्र के सीधे प्रशासन से लद्दाख को पहले की तुलना में अधिक फंड और परियोजनाएँ मिली हैं। लेकिन स्थानीय लोगों का तर्क है कि पर्यटन और बड़े प्रोजेक्ट्स ने पर्यावरण पर दबाव बढ़ा दिया है। साथ ही, निर्वाचित विधानसभा की अनुपस्थिति ने स्वशासन की मांग को और मजबूत किया है।
वांगचुक की छवि में बदलाव मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य से जुड़ा है। जो व्यक्ति कभी दिल्ली में नवाचार के प्रतीक माने जाते थे, अब कुछ लोगों की नजर में सरकार के खिलाफ जनता को भड़काने वाले आंदोलनकारी बन गए हैं।
उनके समर्थकों का कहना है कि यह बदलाव स्वाभाविक है। “वांगचुक हमेशा वास्तविक समस्याओं के समाधान खोजते रहे हैं। आज उनका आंदोलन भी समाधान का ही एक तरीका है, फर्क सिर्फ इतना है कि अब वह राजनीतिक स्तर पर है,” एक स्थानीय नेता ने कहा।
लद्दाख का भविष्य इसी संतुलन पर निर्भर करेगा—विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन, और स्थानीय पहचान के साथ राष्ट्रीय मुख्यधारा में सम्मिलन। आने वाले समय में यह देखना अहम होगा कि केंद्र सरकार वांगचुक जैसे आवाज़ों से संवाद का रास्ता अपनाती है या उन्हें दरकिनार करती है।