द्विपक्षीय संबंधों की ‘पुन: राजनीति’ एक धीमी लेकिन गंभीर संकट
पिछले ढाई दशकों से भारत और अमेरिका के बीच बने रिश्तों को मज़बूत करने में दोनों देशों की कई सरकारों ने मिलकर काम किया है। लेकिन अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के हालिया फैसले और बयानों से यह साझेदारी गंभीर चुनौती का सामना कर रही है।
हाल के विवादित कदम
पिछले कुछ हफ्तों में ट्रंप प्रशासन ने ऐसे कई फैसले लिए हैं, जिन्हें नई दिल्ली में सीधा दबाव और दखल के रूप में देखा जा रहा है—
- भारत के साथ व्यापार वार्ता रोककर 25% आयात शुल्क लगा दिया, जबकि चीन को रियायत दी।
- घोषणा की कि यह शुल्क और बढ़ाया जाएगा तथा रूस से भारत के तेल आयात पर अतिरिक्त दंड लगेगा।
- BRICS समूह में भारत की भागीदारी को लेकर नए शुल्क की धमकी दी।
- अमेरिकी कंपनियों को भारत में निवेश करने के बजाय अमेरिका लौटने का दबाव बनाया।
- पाकिस्तान के आर्मी चीफ से व्हाइट हाउस में मुलाकात के साथ उसे कम शुल्क दर और तेल अन्वेषण सहयोग का वादा किया।
- तकनीकी साझेदारी और सह-नवाचार पर रोक लगाने के संकेत दिए।
विश्लेषकों के तर्क
कई विशेषज्ञ मानते हैं कि ट्रंप के बयान सौदेबाज़ी की रणनीति हो सकते हैं और अंत में किसी “डील” से शुल्क कम भी हो सकता है। इसके अलावा भारत-अमेरिका के व्यापार, तकनीक और समाजिक रिश्ते इतने गहरे हैं कि इन्हें आसानी से तोड़ा नहीं जा सकता। चीन के उभार जैसे साझा रणनीतिक खतरे भी दोनों को साथ ला सकते हैं।
लेकिन असली खतरा
समस्या यह है कि अब भारत-अमेरिका रिश्ते घरेलू राजनीति के हथियार बनते जा रहे हैं—
- भारत में विपक्ष और मीडिया सरकार पर दबाव डाल रहे हैं कि ट्रंप की धमकियों के सामने झुकें नहीं।
- अमेरिका में भारत से जुड़े मुद्दे (H1B वीज़ा, आउटसोर्सिंग, तकनीकी साझेदारी) पहले से ही दलगत राजनीति के केंद्र में हैं।
- 2005 के परमाणु समझौते के समय की तरह, आंतरिक राजनीति द्विपक्षीय समझौतों को पटरी से उतार सकती है।
मुख्य जोखिम
- वॉशिंगटन से भारत को राजनीतिक जोखिम उठाकर रिश्ते मज़बूत करने की उम्मीद थी, लेकिन ट्रंप का रुख अलग है।
- पाकिस्तान को लेकर अमेरिकी रवैये में भारत के हितों का ध्यान रखने की परंपरा अब टूटती दिख रही है।
- तीसरे देशों के साथ रिश्तों को लेकर दोनों देशों का पुराना संयम अब गायब है—विशेषकर रूस से भारत के तेल व्यापार पर अमेरिकी नाराज़गी।
- भाषा और लहजे में संयम खत्म हो गया है; ट्रंप ने भारत को “डेड इकॉनमी” तक कहा।
- सबसे अहम, द्विपक्षीय संबंधों को द्विदलीय समर्थन देने की कोशिश अब कमजोर हो रही है।
निष्कर्ष
अगर यही रुझान जारी रहा, तो भारत-अमेरिका संबंध फिर से राजनीतिक फुटबॉल बन सकते हैं। भरोसा जो सालों में बना, वह कुछ महीनों में टूट सकता है—और टूटने के बाद इसे फिर से बनाना सबसे मुश्किल होगा।