
बिहार के सीमांचल क्षेत्र की राजनीति एक बार फिर सुर्खियों में है — इस बार कारण है एक ही परिवार के दो बेटों का आमना-सामना। आगामी जोकिहाट विधानसभा उपचुनाव में दिवंगत आरजेडी नेता तसलीमुद्दीन के बेटे सरफराज आलम और शाहनवाज़ आलम के बीच सीधा मुकाबला देखने को मिलेगा।
बड़े बेटे सरफराज आलम ने आरजेडी से टिकट न मिलने पर पवन वर्मा की जन सुराज पार्टी का दामन थाम लिया है। वहीं छोटे बेटे शाहनवाज़ आलम को आरजेडी ने जोकिहाट सीट से उम्मीदवार बनाया है — यह वही सीट है जिसे तसलीमुद्दीन ने अपने राजनीतिक जीवन में पांच बार जीता था।
अररिया जिले की यह सीट सीमांचल की राजनीति में विशेष महत्व रखती है। मुस्लिम बहुल इस क्षेत्र में आरजेडी का दशकों से प्रभाव रहा है, लेकिन इस बार समीकरण बदलते दिख रहे हैं।
सरफराज आलम का पार्टी बदलना न सिर्फ व्यक्तिगत असंतोष का परिणाम है, बल्कि यह आरजेडी के अंदर बढ़ती नाराजगी को भी दर्शाता है। जोकिहाट से पूर्व विधायक और अररिया से सांसद रह चुके सरफराज ने कहा, “मुझे जनता के सम्मान और अपनी राजनीतिक पहचान के लिए यह निर्णय लेना पड़ा।”
वहीं शाहनवाज़ आलम की उम्मीदवारी आरजेडी की उस रणनीति का हिस्सा मानी जा रही है जिसके तहत पार्टी अपने पारंपरिक वोट बैंक को बनाए रखना चाहती है। उन्हें आरजेडी संगठन की मजबूती और गठबंधन की शक्ति का सहारा प्राप्त है।
लेकिन यह लड़ाई केवल पारिवारिक नहीं है। भाजपा और जदयू भी मजबूत उम्मीदवार उतारने की तैयारी में हैं, जिससे यह चुनाव बहुकोणीय बन गया है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि चार-तरफा मुकाबले से मुस्लिम वोटों का बंटवारा हो सकता है, जिसका लाभ विपक्षी दलों को मिल सकता है।
राजनीतिक विश्लेषक डॉ. अफ़ताब आलम ने कहा, “सीमांचल का मतदाता हमेशा भावनात्मक आधार पर वोट करता है। परिवार में बंटवारा आरजेडी की प्रतीकात्मक पकड़ को कमजोर कर सकता है, खासकर 2025 विधानसभा चुनाव से पहले।”
तसलीमुद्दीन की विरासत अब दो दिशाओं में बंटी दिख रही है — एक बेटा परंपरा का प्रतिनिधित्व कर रहा है, तो दूसरा परिवर्तन की राह पर है। मतदाता अब तय करेंगे कि वे किसे तसलीमुद्दीन की राजनीतिक विरासत का असली वारिस मानते हैं।
यह मुकाबला न केवल जोकिहाट की राजनीति को प्रभावित करेगा बल्कि सीमांचल में मुस्लिम राजनीति के भविष्य की दिशा भी तय कर सकता है।