एनसीईआरटी की सामाजिक विज्ञान समिति प्रमुख ने पाठ्यपुस्तकों पर उठे सवालों का किया खंडन, कहा – सीमित जगह में ज़रूरी तथ्यों को प्राथमिकता दी गई है
विवाद की पृष्ठभूमि
एनसीईआरटी की सामाजिक विज्ञान की किताबों को लेकर पिछले कुछ समय से लगातार विवाद सामने आ रहे हैं। आलोचकों का आरोप है कि इन पाठ्यपुस्तकों में आरएसएस की सोच और साम्प्रदायिक दृष्टिकोण झलकता है। वहीं, समिति के प्रमुख और फ्रांस में जन्मे विद्वान मिशेल दनीनो ने इन आरोपों को सिरे से खारिज कर दिया है।
दनीनो का पक्ष
मिशेल दनीनो ने स्पष्ट किया कि पाठ्यपुस्तकों में किसी तरह का “साम्प्रदायिकीकरण” नहीं किया गया है। उन्होंने कहा, “पाठ्यपुस्तकों में हमें बहुत सीमित जगह मिलती है। इसलिए हम वही शामिल करते हैं, जो छात्रों के लिए सबसे ज़्यादा ज़रूरी और उपयोगी है। इसमें किसी तरह का राजनीतिक या वैचारिक प्रभाव नहीं है।”
अकादमिक जगत में हलचल
शिक्षाविदों और राजनीतिक दलों के बीच इस मुद्दे को लेकर गहमागहमी बढ़ गई है। कुछ लोगों का मानना है कि इतिहास और सामाजिक विज्ञान की पढ़ाई में संतुलित दृष्टिकोण अपनाना चाहिए, वहीं कुछ का आरोप है कि पाठ्यपुस्तकों के जरिए एक खास विचारधारा को बढ़ावा दिया जा रहा है।
प्रतिक्रिया और बहस
शिक्षा जगत के कई विशेषज्ञों ने दनीनो के पक्ष का समर्थन किया है। उनका कहना है कि स्कूली स्तर पर छात्रों को वही जानकारी दी जानी चाहिए जो उन्हें देश के इतिहास और समाज की ठोस समझ विकसित करने में मदद करे। दूसरी ओर, विरोधी दलों का तर्क है कि शिक्षा को लेकर ऐसी छेड़छाड़ बच्चों की सोच को प्रभावित कर सकती है।
निष्कर्ष
मिशेल दनीनो का यह बयान एक बार फिर इस बहस को हवा देता है कि शिक्षा व्यवस्था में कौन-सी सामग्री प्राथमिक होनी चाहिए। जहां वे ‘सीमित दायरे में ज़रूरी तथ्यों’ पर ज़ोर देते हैं, वहीं आलोचक इसे भारतीय शिक्षा की दिशा और पहचान से जोड़कर देखते हैं। इस पूरे विवाद ने अकादमिक जगत के साथ-साथ राजनीतिक हलकों में भी नई बहस को जन्म दे दिया है।