पटना:बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की राजनीति हमेशा गठबंधन की दिशा बदलने के लिए जानी जाती रही है। एक बार फिर उन्होंने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) में लौटकर यह साबित किया है कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) जैसे राष्ट्रीय दल के साथ रहना उनकी पार्टी जनता दल (यूनाइटेड) (जद-यू) के लिए फायदेमंद साबित होता है।
2005 में भाजपा के साथ गठबंधन कर नीतीश कुमार ने पंद्रह वर्षों के राजद शासन का अंत किया और बिहार में विकास और सुशासन की छवि बनाई।
लेकिन 2013 में मतभेदों के चलते जद(यू) ने एनडीए से अलग होकर अकेले चुनाव लड़ने का निर्णय लिया, जिसका असर साफ दिखाई दिया — पार्टी की सीटें घट गईं और प्रभाव सीमित हो गया।
2017 में नीतीश कुमार ने एक बार फिर एनडीए में वापसी की और कहा कि “राज्य के विकास के लिए बड़ा गठबंधन जरूरी है।” इस कदम ने न केवल उनकी सरकार को स्थिरता दी बल्कि जद(यू) को फिर से मजबूत स्थिति में ला खड़ा किया।
एनडीए के साथ रहते हुए जद(यू) ने सत्ता में हिस्सेदारी और संगठनात्मक मजबूती दोनों हासिल की हैं। इस गठबंधन ने नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री की कुर्सी बनाए रखने में मदद की और पार्टी की पकड़ ग्रामीण व शहरी दोनों इलाकों में मजबूत हुई।
पार्टी सूत्रों के अनुसार, भाजपा के राष्ट्रीय ढांचे और प्रचार नेटवर्क का लाभ उठाकर जद(यू) अपने विकास कार्यों पर अधिक ध्यान केंद्रित कर पाती है। एक वरिष्ठ नेता के शब्दों में — “नीतीश जी का नेतृत्व तब सबसे प्रभावी होता है जब उनके पास स्थिर सहयोगी दल होता है।”
2020 के विधानसभा चुनाव में भले ही एनडीए को मामूली बहुमत मिला, लेकिन नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री पद बनाए रखा, जिससे यह स्पष्ट हुआ कि वे अब भी गठबंधन की केंद्रीय कड़ी हैं।
हालाँकि, गठबंधन राजनीति चुनौतियों से रहित नहीं है। जद(यू) के कुछ नेता मानते हैं कि पार्टी की अपनी पहचान भाजपा की छवि के नीचे दब सकती है।
नीतीश कुमार का कहना है कि “राजनीति में स्थिरता और विकास व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा से ऊपर हैं।”
राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि नीतीश की लचीलापन-भरी रणनीति ही उनकी ताकत है। परिस्थितियों के अनुसार बदलने की क्षमता ने उन्हें बिहार की राजनीति में प्रासंगिक बनाए रखा है।
आगामी 2025 विधानसभा चुनाव यह तय करेंगे कि एनडीए में वापसी से मिली स्थिरता क्या जद(यू) को दीर्घकालिक शक्ति प्रदान कर पाएगी या फिर बिहार एक नए समीकरण की ओर बढ़ेगा।
