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आज़म खान का पतन और सपा की कमजोरी

In Politics
September 24, 2025
rajneetiguru.com - आज़म खान का राजनीतिक पतन और सपा की बदलती सूरत। Image Credit – The Indian Express

उत्तर प्रदेश की राजनीति में कभी अपनी पकड़ और प्रभाव के लिए मशहूर आज़म खान का नाम आज उस ऊँचाई पर नहीं है, जहाँ कभी उनकी बात ही पूरे क्षेत्र का आदेश मानी जाती थी। समाजवादी पार्टी (सपा) के सह-संस्थापक और दस बार के विधायक रह चुके आज़म खान का राजनीतिक सफर कई उतार-चढ़ावों से गुज़रा है, लेकिन बीते कुछ वर्षों में उनका प्रभाव तेज़ी से कम होता गया है।

आज़म खान का राजनीतिक करियर 1980 के दशक से शुरू हुआ और वह जल्द ही पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुस्लिम राजनीति के सबसे प्रभावशाली चेहरों में गिने जाने लगे। रामपुर क्षेत्र में उनकी पकड़ इतनी मज़बूत थी कि उन्हें “रामपुर का सुल्तान” कहा जाने लगा। मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी के उदय के समय आज़म खान पार्टी के रणनीतिकारों में प्रमुख रहे और अल्पसंख्यक वोट बैंक को सपा से जोड़ने में उनकी भूमिका निर्णायक मानी जाती थी।

हालांकि, सपा संस्थापक मुलायम सिंह यादव के अस्वस्थ होने और धीरे-धीरे राजनीति से किनारे होने के बाद आज़म खान का कद भी कमज़ोर पड़ने लगा। मुलायम की अनुपस्थिति में पार्टी का नेतृत्व नई पीढ़ी के हाथों में गया और अखिलेश यादव के नेतृत्व में धीरे-धीरे पार्टी की रणनीति और प्राथमिकताएँ बदलीं। इसी दौर में भाजपा ने उत्तर प्रदेश में अपने संगठन और जनाधार को मज़बूत किया, जिससे सपा की पारंपरिक राजनीति पर असर पड़ा।

भाजपा के लगातार चुनावी जीत दर्ज करने और प्रदेश की सत्ता में मज़बूती से स्थापित होने के बाद आज़म खान का राजनीतिक प्रभाव सीमित होता गया। उन पर लगे कई मुक़दमे और कानूनी विवादों ने उनके करियर को और भी मुश्किल बना दिया। रामपुर जैसी सुरक्षित मानी जाने वाली सीट पर भी भाजपा ने सेंध लगाई और वहाँ की राजनीतिक ज़मीन बदल गई।

आज की तारीख़ में आज़म खान सपा में वरिष्ठ नेता होने के बावजूद संगठनात्मक और चुनावी रणनीति में पीछे छूट गए हैं। पार्टी के कई निर्णयों में उनकी भूमिका नगण्य हो चुकी है और उनके समर्थक भी धीरे-धीरे अन्य खेमों की ओर रुख कर रहे हैं।

राजनीतिक विश्लेषक डॉ. नसीम अहमद का कहना है, “आज़म खान का राजनीतिक ग्राफ़ इस बात का संकेत है कि कोई भी नेता केवल अपने प्रभाव क्षेत्र पर निर्भर रहकर लंबे समय तक प्रासंगिक नहीं रह सकता। जब पार्टी की दिशा और राज्य की राजनीति बदलती है, तो व्यक्तिगत करिश्मा भी सीमित पड़ जाता है।”

जहाँ विपक्षी दल भाजपा के उदय को अल्पसंख्यक राजनीति की कमजोरी से जोड़ते हैं, वहीं सपा के भीतर यह माना जाता है कि बदलते समय के साथ नए नेतृत्व को ही आगे बढ़ाना ज़रूरी था। जनता के बीच अब आज़म खान को एक वरिष्ठ लेकिन हाशिए पर खड़े नेता के रूप में देखा जा रहा है।

आज़म खान के सामने अब सबसे बड़ी चुनौती अपनी राजनीतिक प्रासंगिकता को बनाए रखने की है। सपा में उनकी जगह नई पीढ़ी ने ले ली है और भाजपा की मज़बूत पकड़ ने उनके पारंपरिक गढ़ को भी चुनौतीपूर्ण बना दिया है। आने वाले वर्षों में यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या आज़म खान फिर से राजनीति में अपनी जगह बना पाएंगे या उनका नाम इतिहास के पन्नों तक सीमित होकर रह जाएगा।

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