गुवाहाटी: असम में 2026 के विधानसभा चुनाव जैसे-जैसे नजदीक आ रहे हैं, भारतीय जनता पार्टी ने अपने चुनावी अभियान की भाषा और दिशा को और अधिक आक्रामक बना दिया है। राज्य की राजनीति में लंबे समय से प्रभावी रहे “घुसपैठियों” के मुद्दे को अब पार्टी एक व्यापक “जनसांख्यिकीय खतरे” के रूप में प्रस्तुत कर रही है। इस बदले हुए राजनीतिक विमर्श के केंद्र में मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा हैं, जो आगामी चुनावों को केवल सत्ता की प्रतिस्पर्धा नहीं, बल्कि एक बड़े सामाजिक और सांस्कृतिक संघर्ष के रूप में पेश कर रहे हैं।
मुख्यमंत्री सरमा ने हाल के महीनों में कई सार्वजनिक मंचों से यह तर्क दिया है कि असम की सामाजिक संरचना और सांस्कृतिक पहचान गंभीर दबाव में है। उनके अनुसार, राज्य में जनसंख्या संरचना में हो रहे बदलाव भविष्य में राजनीतिक प्रतिनिधित्व, भूमि अधिकारों और सामाजिक संतुलन को प्रभावित कर सकते हैं। उन्होंने चुनावों को सनातनी सभ्यता और बांग्लादेशी मूल के मिया मुसलमानों के बीच संघर्ष के रूप में परिभाषित करते हुए कहा है कि असम की पहचान को सुरक्षित रखना समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है।
भाजपा का यह रुख पूरी तरह नया नहीं है, लेकिन 2026 चुनाव से पहले इसकी भाषा अधिक व्यापक और स्पष्ट हो गई है। पहले जहां अवैध प्रवास को कानून-व्यवस्था और सुरक्षा का मुद्दा माना जाता था, अब उसे एक दीर्घकालिक जनसांख्यिकीय चुनौती के रूप में पेश किया जा रहा है। पार्टी का कहना है कि यदि इस प्रवृत्ति पर नियंत्रण नहीं किया गया तो असम के मूल निवासियों की राजनीतिक और सामाजिक स्थिति कमजोर हो सकती है।
इस संदर्भ में मुख्यमंत्री सरमा ने संभावित जनगणना आंकड़ों का हवाला देते हुए यह दावा किया है कि आने वाले वर्षों में राज्य में बांग्लादेशी मूल के मुस्लिम समुदाय की जनसंख्या हिस्सेदारी में उल्लेखनीय वृद्धि हो सकती है। उनका कहना है कि यह केवल आंकड़ों का सवाल नहीं है, बल्कि इससे असम की भूमि, संसाधन और सांस्कृतिक संतुलन सीधे तौर पर प्रभावित होंगे। भाजपा नेताओं का मानना है कि यही मुद्दा 2026 के चुनावों में मतदाताओं के निर्णय को प्रभावित करेगा।
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह भी इस विमर्श को समर्थन देते हुए विपक्षी दलों पर तीखा हमला कर चुके हैं। उन्होंने कांग्रेस और अन्य दलों पर आरोप लगाया है कि उन्होंने वर्षों तक अवैध प्रवासियों को वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल किया। एक चुनावी सभा में उन्होंने कहा कि असम की संस्कृति, भूमि और पहचान को खतरे में डालने वालों को राजनीतिक संरक्षण दिया गया, जिसे भाजपा समाप्त करने के लिए प्रतिबद्ध है।
असम में प्रवासन और नागरिकता का प्रश्न दशकों पुराना है। स्वतंत्रता के बाद से ही सीमा से सटे इस राज्य में बाहरी आबादी के आगमन को लेकर सामाजिक आंदोलनों और राजनीतिक बहसों का सिलसिला चलता रहा है। असम आंदोलन, नागरिकता से जुड़े कानून और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर जैसे प्रयास इसी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का हिस्सा रहे हैं। इन मुद्दों ने बार-बार राज्य की चुनावी राजनीति को दिशा दी है।
हालांकि, विपक्षी दलों और नागरिक संगठनों का कहना है कि जनसांख्यिकीय खतरे की भाषा समाज में विभाजन को बढ़ावा दे सकती है। कांग्रेस और एआईयूडीएफ जैसे दलों का आरोप है कि भाजपा विकास, रोजगार और महंगाई जैसे मुद्दों से ध्यान हटाकर धार्मिक और जातीय ध्रुवीकरण को बढ़ा रही है। उनका तर्क है कि असम की विविधता ही उसकी सबसे बड़ी ताकत रही है।
राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार, भाजपा की यह रणनीति उसके समर्थक आधार को एकजुट करने में सहायक हो सकती है, लेकिन इसके सामाजिक प्रभाव दूरगामी हो सकते हैं। गुवाहाटी विश्वविद्यालय के एक समाजशास्त्री का कहना है कि जनसांख्यिकीय आंकड़ों को राजनीतिक पहचान से जोड़ना चुनावी दृष्टि से प्रभावी हो सकता है, लेकिन इससे समाज में अविश्वास और तनाव बढ़ने का खतरा भी रहता है।
जैसे-जैसे 2026 का चुनाव नजदीक आ रहा है, यह स्पष्ट होता जा रहा है कि असम की राजनीति एक बार फिर पहचान, प्रवासन और जनसंख्या संतुलन के इर्द-गिर्द केंद्रित रहेगी। भाजपा इस मुद्दे को अपनी मुख्य चुनावी धुरी बनाने में जुटी है, जबकि विपक्ष इसे विभाजनकारी राजनीति करार दे रहा है। आने वाले महीनों में यह देखना अहम होगा कि असम की जनता सांस्कृतिक सुरक्षा के तर्क को अधिक महत्व देती है या समावेशी विकास के वादों को।
