क्या आज के नेता रावण को जलाने का नैतिक दम रखते हैं !
इन दिनों नेताओं ने समाज, धर्म और राजनीति का कॉकटेल बना दिया है तभी तो दुर्गा पूजा के पवित्र मंच का भी इनदिनों सियासी इस्तेमाल धडल्ले से हो रहा है. जहाँ भक्तों की भीड़ दिखी, नेताजी का भाषण शुरू. उन्हें शायद ये नहीं बताता कोई कि ऐसे अवसरों पर लोग भक्ति और मस्ती करने आते हैं, नेताओं का भाषण उन्हें बिलकुल इर्रिटेट करता है.
बिहार और झारखंड में विजयादशमी के दिन राजधानी में रावण के पुतलों में आग लगाने का नेक कार्य सम्बंधित राज्य के मुख्यमंत्री करने लगे हैं. राजधानी के बाहर ये पुनीत कर्तव्य मंत्री या कोई स्थानीय जन प्रतिनिधि करता है.
ऐसे में पटना के ए एन सिन्हा इंस्टिट्यूट के एक समाजशास्त्री का यह कहना बिलकुल सही है कि क्या रावण को जलाने की स्वीकार्य पात्रता आज के राजनीतिज्ञों में है! जैसे-तैसे जीतकर, सत्ता पाकर अहंकार में डूबे आज के अधिकांश राजनीतिज्ञ खुद ही अपने अंदर कई रावण पाल बैठे हैं. नैतिकता से कोसों दूर ये राजनेता सार्वजनिक जीवन में जब अपनी प्रासंगिकता पूरी तरह खो बैठे हैं तो वो केवल पॉवर के दम पर ही ऐसे कर्मकांड निभाने की छूट ले पाते हैं.
आप खुद सोचिये. आज के मुख्यमंत्री पर कितने लोग भरोसा करते हैं! आप खुद सोचिये अगर प्रदेश में कभी कोई बड़ी घटना घटती है तो क्या किसी मुख्यमंत्री में इतना नैतिक साहस है कि उनकी अपील पर लोग भरोसा करें और शांत हो जाएं. बिलकुल नहीं. क्योंकि इनपर लोग भरोसा नहीं करते. इनका विभाग बड़े-बड़े विज्ञापन निकालता है, लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ता.
ऐसे में आयोजकों को चाहिये कि रावण के पुतले को वही जलाएं, जो सार्वजनिक जीवन में निर्विवाद हों, जिनमें राम बसते हों. जो खुद अपने अंदर अहंकार और भर्ष्टाचार का रावण पालते हों, जिनके राज्य में औरतें सुरक्षित न हों, जो किसी बेटी की ख़ुदकुशी पर कार्रवाई करने की बजाय उलटे न्याय मांगने गए उसके पालक पिता को सार्वजनिक रूप से जलील करते हों, वो कैसे रावण का पुतला जला सकते हैं.
दरअसल राजनीति, धर्म और समाज की अन्तःसंरचना ऐसी गुंथी जा चुकी है कि कोई बलात्कारी राम-रहीम जब चाहे किसी सरकार को शीर्षासन करा सकता है. कोई नकली शंकराचार्य किसी मुख्यमंत्री को अपने चरणों में झुका सकता है. रोज़ लोग ये सियासी तमाशा देख सुन रहे हैं इसलिए अब किसी भी नेता के नाम पर वो केवल नाक भौं ही सिकोड़ते हैं.
यह सियासत का स्याह पक्ष है. अच्छे और स्वच्छ छवि के लोग जब तक राजनीति में नहीं आयेंगे, लोगों का भरोसा यूँ ही ख़त्म होता रहेगा. सवाल विश्वसनीयता का है, और ये नारे लगवाने से नहीं आती. ये व्यवहार से आती है, सरोकार से आती है. कोई नायक ही रावण दहन करने का पात्र है कोई खलनायक नहीं.