-क्या करेंगे सुदेश!
झारखण्ड में ओबीसी राजनीति की तेज आंधी चल पड़ी है। इस आंधी का बहाव अगर इतना ही तेज रहा तो सभी राजनीतिक पार्टियों के सामने सियासी संकट पैदा हो सकता है। अगर 47 फीसदी ओबीसी आबादी इसी तरह सियासी एकजुटता दिखाती रही तो फिर किसी और समीकरण की गुंजाइश ही कहां बचती है। सारे बने बनाये पुराने समीकरण ही ध्वस्त हो जायेंगे। इस अहसास ने ही लम्बे समय से आदिवासी वोटबैंक की राजनीति चला रहे नेताओं के माथे पर पसीना ला दिया है। ओबीसी कार्ड की काट सोचने पर विवश हो रहे हैं कई दल। पर गुजरात के पाटीदार समाज की तरह झारखण्ड का पिछड़ा समाज कुछ सुनने के मूड में नहीं है, झारखण्ड में बही यह सियासी आंधी इस बार सारी राजनीति को उलट-पुलट करने के अंदाज में है। लम्बे समय से आरक्षण की सीमा बढ़ाने की मांग कर रहे ओबीसी जमात को यह लगने लगा है कि अभी नहीं तो कभी नहीं। झारखण्ड के पिछड़ों को लग रहा है कि रांची और दिल्ली के तख्त पर ओबीसी नेता बैठे हैं, ऐसे में इनकी यह मांग हर हालत में पूरी होनी चाहिए। सियासी हक की इस लड़ाई में युवा आगे हैं। हर जगह इस सवाल पर युवाओं की सियासी गोलबंदी तेज हो गयी है।
हर जगह रैली और कार्यक्रम आयोजित हो रहे हैं, ओबीसी वोटर्स यह समझ रहा है कि मात्र 14 फीसदी आरक्षण देकर झारखण्ड में उनके साथ लगातार नाइंसाफी की जा रही है, जबकि देश के अधिकांश हिस्से में इन्हें मंडल कमीशन द्वारा तय 27 फीसदी आरक्षण मिल रहा है। प्रधानमंत्री को भी इस सियासी अन्याय के बारे में बताया गया है। लेकिन पिछड़ों के आरक्षण अन्याय पर राष्ट्रीय पार्टियों की चुप्पी इस बहुसंख्य समाज को चुभ रही है।
आखिर क्या है ओबीसी राजनीति में इस उबाल की वजह! पूर्व उप मुख्यमंत्री और इस जमात के कद्दावर नेता सुदेश महतो कहते हैं कि यह उबाल अन्याय के खिलाफ है। आखिर झारखण्ड की बहुसंख्यक ओबीसी जमात ही हमेशा अपनी कुर्बानी क्यों दे। झारखण्ड में 26 फीसदी अनुसूचित जनजाति को 24 फीसदी आरक्षण, अनुसूचित जाति को 10 फीसदी आरक्षण और 47 फीसदी ओबीसी को मात्र 14 फीसदी आरक्षण। ये तो अन्याय हुआ ना। पिछड़े वर्ग के युवाओं के हक छीने जारहे हैं, ना इनके बच्चों को सहूलियत मिल रही है और ना इन युवाओं को नौकरी। ऐसे में इनके पास आन्दोलन के अलावा क्या विकल्प बच जाता है।सुदेश महतो कहते हैं कि अर्जुन मुंडा जब मुख्यमंत्री थे तब ओबीसी की आरक्षण सीमा बढ़ाने को लेकर एक 5 सदस्यीय कमिटी बनाई गयी थी, अर्जुन मुंडा उसके अध्यक्ष थे, सुदेश महतो भी उसके सदस्य थे। अल्पमत की सरकार थी, सरकार गिरने के बाद उसपर कुछ हुआ ही नहीं। अभी तो बहुमत की सरकार है और खुद मुख्यमंत्री ओबीसी के हैं। दिल्ली में हमारे प्रधानमंत्री ओबीसी हैं, ऐसे में इस सरकार को राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखानी चाहिए।
अबकी बार नहीं चुकेंगे पिछड़े
भारत के प्रधानमंत्री और झारखण्ड के मुख्यमंत्री दोनों पिछड़ी जमात से आते हैं। रघुवर दास के मुख्यमंत्री बनने के बाद इस तबके को लगने लगा था कि उन्हें उनका हक मिलेगा। झारखण्ड बनने के बाद किसी गैर आदिवासी पिछड़े को प्रदेश की कमान सौंपी गयी। लेकिन विधानसभा में उन्होंने पिछड़ों के आरक्षण पर आश्वासन तक नहीं दिया। देश में अधिकांश जगह पिछड़ों को 27 प्रतिशत आरक्षण मिलता है जब कि झारखण्ड में मात्र 14 प्रतिशत। ऐसे में ओबीसी का धैर्य खत्म होने लगा है और हक के लिए आन्दोलन की फिजा तैयार होने लगी है।
सुदेश महतो कहते हैं कि झारखण्ड में दो लेयर है आरक्षण का, एक राज्य स्तर का और दूसरा जिला स्तर का। वह बताते हैं कि जिले में स्थानीयता के हिसाब से होनेवाली बहालियों का और भी बुरा हाल है, रांची जिले का उदाहरण देते हुए इन्होंने कहा कि यहां ओबीसी को मात्र 2 फीसदी ही आरक्षण मिलता है, इस वजह से स्थानीय जिलास्तर की अधिकांश नौकरी में ओबीसी युवा पिछड़ जाते हैं। इस असमानता और विसंगति को दूर करना ही होगा। अब राज्य सरकार कोई भी सियासी बहाना नहीं बना सकती। आखिर ये ओबीसी समाज के भविष्य का सवाल है। आजसू इसपर चुप नहीं बैठ सकता। हम लगातार राज्य और केंद्र सरकार को इस विसंगति और अन्याय के बारे में बता रहे हैं।
50 फीसदी आरक्षण वाली सीमा तमिलनाडु, राजस्थान समेत कई राज्यों ने तोड़ी है। फिर झारखण्ड में ये क्यों नहीं टूट सकता। सुदेश कहते हैं कि हम किसी का आरक्षण कम करने के बारे में नहीं कहते। बाकी समाज को भी आरक्षण मिले लेकिन ओबीसी का कम क्यों हो। आबादी के लिहाज से सबसे बड़े समाज के भविष्य के साथ खिलवाड़ नहीं होनी चाहिए। ओबीसी समाज के युवा इस बार ज्यादा आंदोलित हैं। जिलास्तर की नौकरियों में लगातार हो रही बेदखली इन्हें अब मंजूर नहीं। इन युवाओं को पिछड़े नेताओं से भी नाराजगी है। इन्हें लगता है कि समाज के बड़े नेता राजनीतिक आवाज उठाने में लगातार चुकते गए। यही वजह है कि प्रदेश के अलग अलग हिस्सों में शुरू हुआ आन्दोलन नौजवानों ने अपने हाथ में ले लिया है। कई राजनीतिक जानकार कहते हैं कि झारखण्ड में कुडमी, यादव, वैश्य समेत अन्य ओबीसी के साथ नाइंसाफी हुई है। इनका मानना है कि अगर ओबीसी के मामले ने तूल पकड़ा तो वर्तमान पॉलिटिक्स की हवा निकल सकती है फिर एक नया राजनीतिक समीकरण सामने होगा।
साभार राजनीति गुरु पत्रिका