राज्य में निकाय चुनाव को लेकर सभी दलों के प्रत्याशी खूब प्रचार कर रहे हैं। सभी दल अपने-अपने वादों के साथ अपनी जीत के दावे भी कर रहे हैं। मतदाताओं को लुभाने-रिझाने के लिए तरह-तरह की घोषणाएं की जा रही हैं। ऐसा लग रहा है जैसे चुनाव के बाद चंद महीनों में ही शहर का कायाकल्प हो जाएगा। इन प्रत्याशियों ने शहर के वोटरों को अपने पाले में करने के लिए महिलाओं, युवाओं और बुजुर्गों सबों के लिए कुछ न कुछ अपने वादों पिटारे में जरूर रखा है। शहर की गलियों, मुहल्लों, चौक-चौराहे चाहे जहां तक आपनी नजर दौड़ाएं, चारो ओर बैनर, पोस्टर लगे हैं। और इन पर एक से बढ़कर एक घोषणाएं की गई हैं। कोई प्रत्याशी किसी से कम नहीं है।
बहरहाल, इन सब के बीच ये सवाल उठता है कि वादों की इस ढेर में शहर की आम-आवाम को अंततः क्या मिलने वाला है। क्या उनकी समस्याओं का निपटारा इतनी आसानी से हो पाएगा जितनी शिद्दत से इन पोस्टरों में कही जा रही है। शायद नहीं। क्योंकि चुनाव के बाद घोषणाओं की ये लंबी फेहरिस्त कहीं दूर तक भी दिखाई देनेवाली नहीं है।
रांची नगर निगम में पिछले 4 वर्षों में जो कुछ हुआ उससे कम से कम ये सबक जो जरूर मिल गया है कि मेयर और डिप्टी मेयर की कुर्सी की ये लड़ाई सिर्फ भ्रष्टाचार में हिस्सेदारी के लिए है। इसके लिए जरा पीछे जाइए, याद कीजिए, कैसे 4 साल मेयर और डिप्टी मेयर की कुर्सी पर रहे आशा लकड़ा और संजीव विजय विजयवर्गीय आपस में ही लड़ते रहे। जानकारों का कहना है कि दोनों की लड़ाई की वजह से शहर की सुरक्षा के लिए लगने वाले सीसीटीवी कैमरे नहीं लग पाए। शहर में स्टॉपेज नहीं बन पाए। दोनों के बीच का विवाद इतना बढ़ गया कि खुद सीएम रघुवर दास को भी दखल देना पड़ा।
वहीं पूरे शहर ने ये भी देखा है कि कैसे मेयर और डिप्टी मेयर कई योजनाओं को लेकर अधिकारियों से भिड़ गए। जब भी पार्षदों ने शहर की समस्याओं को लेकर दोनों को घेरने की कोशिश की तो इसका ठीकरा अधिकारियों के सिर पर फोड़ने की कोशिश की। अब ये सवाल उठ रहा है कि फिर सिर्फ कुर्सी सजाने के लिए लाखों रुपए क्यों खर्च किए जा रहे हैं। वहीं अंदरखाने ये भी चर्चा है कि इन प्रत्याशियों का काम कमीशन एजेंट से अधिक कुछ भी नहीं है। तो क्या सिर्फ जनता के पैसे की लूट के लिए इतनी मारामारी है। क्या ठेकेदारी के लिए ये जोर आजमाइश हो रही है। कहा जा रहा है कि इसे लेकर गली-मुहल्लों में तो खुलेआम प्रत्याशियों ने बोली तक लगा दी है। पहले से कहा जा रहा है कि चुनाव जीतने के बाद किसे लाभ पहुंचाया जाएगा। प्रत्याशियों के फाइनांसर भी इसमें हामी भरते हैं, कहते हैं जो लगाया है उसे तो निकाला ही जाएगा।