मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बाल विवाह और दहेज प्रथा के खिलाफ अभियान की शुरुआत की है। निःसंदेह यह कदम स्वागतयोग्य है। और इसका व्यापक समर्थन मिलना भी तय है। महात्मा गांधी की जन्म दिवस पर इसकी शुरुआत करते हुए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने शराबबंदी और नशामुक्ति अभियान के संकल्प को दुहराया। इसमें कोई दो राय नहीं कि इस अभियान के सामाजिक परिवर्तन की बुनियाद रखी गयी है।
पर बड़े फलक पर देखा जाय तो इसके मायने कहीं और भी संकेत कर रहे हैं। ध्यान रहे कि नीतीश कुमार ने चुनाव पूर्व यह घोषणा की थी कि वे यदि चुनाव जीतते हैं तो बिहार में शराबबंदी लागू की जायेगी। महिलाओं ने नीतीश की कही इस बात को गांठ बांध लिया और जमकर वोट दिया। नतीजा यह हुआ कि मोदी लहर को शिकस्त देने में राजद-जदयू गठबंधन सफल रहा। उससे थोड़ा और पीछे जाइये, नीतीश कुमार ने राज्य में स्कूलों में पढ़ने वाली छात्राओँ को छात्रवृति और साइकिल दी थी। कहने का मतलब स्पष्ट है कि नीतीश की नजर आधी आबादी की ओर है। और महिलाओं की ओर से बढ़ रहा सपोर्ट उन्हें सियासी तौर पर दिनों-दिन मजबूत बना रहा है।
राजनीतिक पंडितों की मानें तो नीतीश कुमार अपने प्रतिद्वंदियों के आगे लंबी लकीर खींचने के आदी रहे हैं। उनका हर कदम राजनीतिक होता है, बिना सियासी फायदे के वे ऐसे फैसले नहीं कर सकते जो उन्हें नुकसान पहुंचा दें। वे बिहार की जातीय समीकरण और उसकी बुनावट भलिभांति जानते हैं। उनका टारगेट बाल विवाह प्रथा की परंपरा में फंसी ओबीसी और दलित महिलायें हैं वहीं दहेज प्रथा की मार झेल रही सवर्ण और कुछ संपन्न ओबीसी जाति की महिलायें हैं। कुल मिलाकर देखा जाय तो यह एक बहुत ही बड़ा वोट बैंक है जो अगर नीतीश कुमार के सियासी इंजीनियरिंग से प्रभावित हो गयी तो आने वाले 2019 के चुनाव में इसके असर दिख सकते हैं।