झारखण्ड की प्रशासनिक टीम भी गुटों में बंटी हुई है. इसी वज़ह से तमाम इच्छशक्ति के बाद भी मुख्यमंत्री रघुवर दास घोषणा पुरुष बनकर रह गए हैं. वह आये दिन घोषणाएं करते हैं, लेकिन इन घोषणाओं को जमीं पर उतारने की जिम्मेवारी जिन नौकरशाहों पर है. वो तो अपने-अपने समीकरण में ही व्यस्त हैं. कहा जाता है कि पूर्व मुख्य सचिव राजबाला वर्मा के वक़्त अधिकारियों की गुटबाजी बेतहाशा बढ़ी. इसी खेल का नवीनतम शिकार बनीं कार्मिक विभाग की पूर्व प्रधान सचिव निधि खरे. निधि खरे झारखण्ड की काबिल अधिकारियों में गिनी जाती हैं. मुख्यमंत्री की विश्वासपात्र भी थी निधि खरे. तब भी उन्हें आखिर कार्मिक विभाग से क्यों चलता किया गया!
जानकार बताते हैं कि निधि खरे से राजबाला वर्मा रुष्ट थी. जिस दिन राजबाला वर्मा का अंतिम दिन था, वो चाहती थी कि निधि खरे उसी दिन सलाहकार पद पर नियुक्ति वाली उनकी फाइल भी बढाये. ताकि उनकी सत्ता और ठसक एक दिन के लिए भी कम ना हो. किसी कारण ऐसा ना हो सका, ऐसे में राजबाला ने मुख्यमंत्री को बताया कि अमित खरे के मुख्य सचिव नहीं बनने की स्थिति में निधि खरे बागी हो सकती हैं और उन्हें कार्मिक से हटा देना ही उचित होगा. शुरू में मुख्यमंत्री इसके लिए तैयार नहीं थे, लेकिन राजबाला की एक बार फिर चली और निधि खरे कार्मिक से हटा दी गयी.
सुधीर त्रिपाठी का प्रस्ताव भेजते हुए एक तरह से निधि खरे ने अमित खरे के बर्बादी दस्तावेज पर ही दस्तखत किया. वो चाहती तो सभी सीनियर्स का प्रस्ताव इस पद के लिए मुख्यमंत्री के पास भेज देती और फिर एक अघोषित संकट होता मुख्यमंत्री के सामने. लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया और मुख्यमंत्री की इच्छा का सम्मान किया. लेकिन सरकार ने उलटे उन्हें दण्डित ही किया. स्वास्थ्य विभाग बहुत बड़ा विभाग है. यहाँ निधि खरे जैसे कार्यकुशल अधिकारी की जरुरत भी है. लेकिन आनन-फानन में इन्हें जैसे कार्मिक से मुक्त किया गया, वह अशोभनीय है. इससे काबिल और योग्य अधिकारियों का मनोबल टूटता है.