आपको वोट डालते वक्त यह लगता होगा कि आप सरकार चुन रहे हैं. आप सरकार बना रहे हैं, या आप किसी खास राजनीतिक दल को वोट कर किसी सियासी विचारधारा को मजबूत या कमजोर बना रहे हैं, पर जरा ठहरिए! आप गलत हैं.
वोट आप देते जरूर हैं, लेकिन सियासी दल की शक्ल में कोई न कोई बड़ा धन्नासेठ जिसे आज की भाषा में कारपोरेट हाउस कहा जाता है, वही हमारा निजाम तय करता है. वही हमारी सियासी तकदीर तय करता है. वही धन्ना सेठ हमारे देश का एजेंडा तय करता है. यह हम नहीं कह रहे, एडीआर की रिपोर्ट कर रही है.
एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक 1952- 1996 तक राजनीतिक दलों को जितने चंदे मिले, उससे ज्यादा चंदा केवल 2014 के चुनाव में मिला. 2013 से 2015 तक कारपोरेट घरानों ने 797 करोड़ से अधिक का चंदा राजनीतिक दलों को दिया, जिसमें तकरीबन 90 फ़ीसदी केवल भाजपा के हिस्से आया. राष्ट्रीय दलों को मिलने वाले कारपोरेट चंदे की कहानी हैरान करने वाली है. आप जरा सोचिए जिस किसी बड़े धन्ना सेठ ने या कई सेठों ने 800 करोड़ रुपए चंदे के तौर पर दिए वह इन दलों से और इनसे चलने वाली सरकार से कितना गुना मुनाफ़ा बटोर लेंगे. इस तरह देखा जाए तो सरकार इन धन्नासेठों के चंदे से चुनाव लड़ती है और उनके एजेंडे पर चलती है. इस खेल में केवल भाजपा ही नहीं है, कांग्रेस एनसीपी समेत सभी बड़े राजनीतिक दल हैं. अब अगली बार जब वोट डालने जाएं तो यह जरूरत तय कर ले कि आपका वोट किस कारपोरेट हाउस को मदद पहुंचाएगा.