इन दिनों भाजपा में हू-ला-ला गाना खूब बज रहा है, जिसे मन हो रहा है वही इसे बजा दे रहा है। सबसे पहले इसे यशवंत सिन्हा ने बजाया। उनके बजाते ही यह गाना इतना लोकप्रिय हुआ कि कई लोग इसे बजाने लगे और पार्टीलाइन से आगे जाकर यह गाना कोरस में तब्दील होता जा रहा है। आखिरकार प्रधानमंत्री को स्वयं मोर्चा संभालना पड़ा। उन्होंने अर्थव्यवस्था के आलोचकों को निराशावादी और महाभारत का शल्य तक कह दिया। इसके जवाब में यशवंत सिन्हा ने कहा कि वो शल्य नहीं भीष्म हैं, पर अर्थव्यवस्था का चीरहरण देख उस भीष्म की तरह चुप नहीं बैठेंगे। इससे पहले जेटली ने सिन्हा को ऐसा शख्स कहा था जो 80 वर्ष के बाद भी नौकरी की तलाश में है। तब भी सिन्हा ने जेटली को याद दिलाया था कि जेटली की नौकरी उन्हीं की वज़ह से है। यशवंत के उठाये सवालों पर अटल सरकार के दो मंत्री अरुण शौरी और शत्रुघ्न सिन्हा सार्वजनिक रूप से इसका समर्थन कर चुके हैं।
यशवंत के सवाल प्रासंगिक हैं। बाज़ार में छायी वीरानी इस बात की तस्दीक कर रही है। दुर्गापूजा के दौरान यह सबने महसूस भी किया। अब इस बात का तेज़ जतन है कि दीवाली के दौरान किसी तरह बाज़ार की रौनक बरकरार रखी जाये।
आखिर यशवंत सिन्हा के उठाये सवालों पर बात करने की बजाय उनपर व्यक्तिगत हमले क्यों किये जा रहे हैं। क्या भाजपा नेतृत्व में आलोचना का धैर्य चुक रहा है। क्या भाजपा भी कांग्रेस के रास्ते बढ़ रही है, जहाँ जो राहुल कहेंगे वही अंतिम वाक्य है। जो आलोचना करेंगे उन्हें निंदक समझा जायेगा। आखिर ये कौन सी भाजपा है, जहाँ वरिष्ठ नेताओं की बात सुनने की बजाय उन्हें निशाना बनाया जाता है।
जिस दल में विचारों का विरोध होने लगे वो आहिस्ता-अहिस्ता विचार शून्य और विचारहीन होता जाता है, फिर वहां लोकतंत्र नाम मात्र का ही रह जाता है। क्या दीनदयाल उपाध्याय, नानाजी देशमुख और अटलबिहारी वाजपेयी की भाजपा उसी विचारहीन रास्ते पर बढ़ रही है।
अब भी समय है कि भाजपा राजनीति में हू-ला-ला गाना बंद होना चाहिए। अगर आपस में ही कीचड़ उछाल होता रहा तो आगे गुजरात है। जहां भाजपा की राह पहले से मुश्किल है।