झारखंड में पिछड़ी राजनीति और आदिवासी राजनीति एक बार आमने सामने हो गई है. रांची में शनिवार को जहां आदिवासियों की रैली हुई, वहीं कोल्हान में कुर्मी समाज की रैली हुई. दोनों रैलियां एक-दूसरे के खिलाफ विष वमन करने में ही खत्म हो गई. जहां आदिवासी राजनीति करने वालों ने कुर्मी और तेली जाति को ST में शामिल नहीं करने की चेतावनी दी, वही कुर्मी जाति के नेताओं ने कहा कि हर हाल में ST में शामिल हो कर रहेंगे.
सवाल यह है कि इन दोनों बड़े समूह को आमने-सामने करने से किन का भला हो रहा है! झारखंड में राजनीतिक युद्ध कराते-कराते सामाजिक युद्ध छेड़ने का ऐलान कौन कर रहा है. क्या इन दोनों समाज के लोग बिना सोचे समझे ऐसे लड़ाने वाले नेताओं के पीछे चल पड़े हैं. ऐसे में सरकार की क्या भूमिका रह जाती है! सवाल बेहद गंभीर है, राज्य सरकार इसे हल्के में ना ले. पहले से ही पत्थर गढ़ी की वजह से राज्य के एक बड़े तबके से संवादहीनता की स्थिति है. ऐसे में राज्य सरकार को तुरंत संवाद शुरू करना चाहिए.
सबसे पहले पिछड़े वर्ग की बात. पिछड़े वर्ग को झारखंड में मात्र 14% आरक्षण मिल रहा है. 27% आरक्षण का उनका स्वाभाविक दावा है, जिलों में उनकी स्थिति और भी बदतर है. ऐसे में पिछड़ी जातियों को एक मंच पर आकर जहां अपने 27% आरक्षण की बात करनी चाहिए. वहीं इस समूह के कुछ नेता अपनी दुकान चलाने के लिए पिछड़ों को बहकाकर ST में शामिल होने की बात कर रहे हैं. ऐसे में अगर आदिवासी समूह को यह लग रहा है कि उनसे सामाजिक रुप से उन्नत कुर्मी और तेली जैसी जाति ST में आकर उनका हक छीन लेगी, ऐसे में उनसे संवाद की जरूरत है.
राज्य सरकार को जाति राजनीति करने की बजाय विकास की राजनीति करनी चाहिए. राज्य सरकार का एक तबका जाति राजनीति के नाम पर राज्य में ट्राइबल और नॉन ट्राइबल की धाराओं को तोड़ने में लगा हुआ है और उसमें बहुत हद तक सफल भी है. अभी दोनों समूह के लोगों को इस राजनीति को समझना होगा और समाज को तोड़ने वाले लोगों के प्रति सावधान रहना होगा, नहीं तो झारखंड समाजिक वैमनस्य की उस राह पर चल पड़ेगा जो किसी के लिए ठीक नहीं है.