एक बार अर्जुन का एक तीर लगने से कर्ण का रथ सात हाथ पीछे चला गया. कर्ण के तीर से अर्जुन का रथ थोड़ा कम पीछे गया अर्जुन अपनी शक्ति पर विजय भाव से मुस्कुराया, कहा- देखा भगवन! कृष्ण बोले- मत भूलो कि तुम खुद नर-श्रेष्ठ हो, मैं खुद 'नारायण' तुम्हारे रथ पर बैठा हूं; और ऊपर ध्वज पर हनुमान विराजमान हैं. फिर भी इस रथ को कर्ण ने अपने वाण से इतना पीछे धकेल दिया; और तुम अपनी शक्ति पर इतरा रहे हो! अर्जुन का सिर झुक गया. उसे अपनी क्षुद्रता और कर्ण की ताकत का एहसास हो गया! (साभार – श्रीनिवास जी)
इस पौराणिक आख्यान के जिक्र के पीछे एक उद्देश्य है. हमारे एक अनुज के मन में एक शंका है कि गुजरात में हुई भाजपा की जीत को कुछ लोग क्यों “कांग्रेस की नैतिक जीत” बता रहे हैं? उनका सवाल एकदम वैध है और एक नजर में भाजपा की जीत को “कांग्रेस की नैतिक जीत” बताना सरासर अन्याय दिखता भी है. पर भाई, उपरोक्त उपाख्यान को समझोगे तो समझ में आएगा कि सीधे और सपाट दृष्टि से देखने पर जो चीज नजर आती है वो एक हलका भ्रम भी हो सकता है या अर्ध सच्च भी हो सकता है. निश्चित रूप से भाजपा ने गुजरात की जंग जीत ली है पर वह किस परिस्थिति और किस स्थिति में हुई है इसके भी निहितार्थ हैं. अगर आपको याद हो तो अटल जी के नेतृत्व में 2004 की भाजपा की हार का ठीकरा नरेन्द्र मोदी के 2002 के कारनामे से जोड़ा गया था लेकिन सारे विवादों के बावजूद अडवाणी जी के सहयोग से मोदी ने उस विरोध पर अंतत: रोक लगाने में कामयाब रहे थे और आज इंदिरा गांधी के बाद देश के सर्वाधिक मजबूत और विवादित प्रधानमंत्री हैं. गुजरात का चुनाव ऐसे ही प्रधानमंत्री व उनके दाहिने हाथ और भाजपा के अबतक के सर्वाधिक मजबूत संघटककर्ता अमित शाह के नेतृत्व में हिंदुत्व की उस प्रयोगशाला में हुआ जहां कल तक कोई उसे 125 से नीचे सीटें देने के लिए तैयार नहीं था फिर भी वे किसी तरह मात्र सात सीटों से ही अपनी सत्ता बचाने में सफल हुए. ऐसे में अमित शाह के 150 के आंकड़ों की बात बेमानी है. इतना भी तब हो सका जब हमेशा समावेशी विकास का नारा देने वाले प्रधानमंत्री के सामने कांग्रेस जैसी कमजोर पार्टी और “पप्पू” जैसे नेता का ही सामना था और अंतिम सात दिनों में पाकिस्तान सहित अनेक झूठों का सहारा लेना पड़ा.
वैसे भी लोकतन्त्र में चुनाव एक बार की प्रक्रिया नहीं है. चुनावी विश्लेषण केवल एक चुनाव तक नहीं होता बल्कि उसे आनेवाले कई चुनावों से जोड़ा जाता है. यहां यह भी ध्यान दें कि प्रधानमन्त्री मोदी और अमित शाह की जोड़ी सतत चुनाव में ही विश्वास रखती है. कदाचित यही कारण है कि वे जहां जाते हैं हमेशा चुनावों को ध्यान में रख बाते करते हैं. अभी दो दिन पूर्व प्रधानमंत्री पूर्वोत्त्तर में थे. लोगों को लगेगा कि प्रधानमंत्री वहां अपने कर्तव्यों के निर्वहन के सिलसिले में होंगे पर ऐसा नहीं है. वे वहां होने वाले चुनावों के मद्देनजर ही गए थे.. शायद यही कारण है कि आज के अख़बारों में किसी महत्वपूर्ण हस्ती ने प्रधानमन्त्री और मुख्यमंत्रियों को चुनाव अभियान से अलग करने की मांग की है. मूलतः मोदी जी की जबरदस्त खूबी लगातार चुनावी अभियान में लगे रहना ही है क्योंकि वे एक नेता से बेहतर एक सेनानायक की भूमिका में ज्यादा फिट बैठते हैं. फिर भी ये इतर बात है. मूल बात ये है कि आने वाले डेढ़ सालों में संसदीय चुनावों से पहले कर्णाटक सहित अनेक राज्यों में भी चुनाव होने वाला है इसलिए “कांग्रेस की नैतिक जीत” का रूपक प्रासंगिक है. जैसे भाजपा की नीतियों की पसंदगी के कारण आपको कांग्रेस की नैतिक जीत की बात समझ में नहीं आ रही वैसी अनेक बातें भाजपा की नीतियों के पसंद न आने के कारण भाजपा प्रेषित –अनेक आख्यान या उपाख्यान हमें भी पसंद नहीं आते. फिर भी वैचारिक स्तर पर हम मानते हैं कि भिन्न नजरिये व अनेक भिन्नताओं के कारण हम सबको अपनी बात हर जगह रखने का अधिकार है. हालांकि भाजपा व उसके समर्थक इस बात को नहीं मानते अन्यथा क्या कारण है कि भाजपा के उभार के साथ ही सार्वजनिक जगहों पर लोग-बाग़ अपनी बात रखने से डरने लगे हैं. हमारा भी अनुभव अच्छा नहीं है क्योंकि जैसे ही आप साफ-सुथरे ढंग से अपनी बात फेसबुक या किसी सोशल मीडिया पर रखते हैं कि लोग तथ्यात्मक विरोध की जगह अनाप-शनाप लिखने लगते हैं. किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए यह बहुत अच्छी बात नहीं है फिर भी हम ऐसा झेलने के लिए अभिशप्त हैं. क्योंकि ये हाल हमारे देश का नहीं रहा है बल्कि पूरी दुनिया में लोग बाग इतने असुरक्षित महसूस करने लगे हैं कि वे तथ्यात्मक बातों की जगह भावनात्मक या गाली-गलौच की भाषा का इस्तेमाल करते हैं.
वरिष्ठ पत्रकार बब्बन सिंह के Facebook वॉल से साभार