पहली मई गुजर गयी. लाल-हरे झंडे खूब लहराये गये. मजदूर हित की बातें भी खूब हुई. कई जुलूस, मोर्चे निकले. फलाफल क्या हुआ या क्या होता रहा है, इसपर चर्चा का वक़्त आ चुका है. झारखण्ड के सन्दर्भ में पहले ये देखना दिलचस्प होगा कि बड़े मजदूर नेताओं का हाल अभी क्या है.
झारखण्ड के सबसे कद्दावर श्रमिक नेता एके राय बेहद बीमार हैं, उनका संगठन उनकी विचार छाया से लगभग बाहर निकल चुका है. अपने तक राय दा की नहीं सुनते तो दूसरों से क्या उम्मीद की जाये. पूरी जिन्दगी राय दा ने मजदूर हित की केवल बात ही नहीं की, उसे जीया भी. उनका आज भी कोई घर नहीं है. इतनी बार धनबाद के सांसद रहे, पर जिन्दगी दफ्तर में रहकर गुजार दी. उनके संगठन के अधिकांश पदाधिकारियों के पास आलिशान मकान और चमचमाती गाडियां हैं.
समरेश सिंह, राजेन्द्र सिंह, ददई दुबे सबके सब मजदूर यूनियन की राजनीति तो कर रहे हैं पर जनता ने इन्हें नकार दिया है. सब जनता की अदालत में हार चुके हैं. आप खुद सोचिये. लाखों सदस्यों वाले इंटक के महामंत्री राजेन्द्र सिंह उस बेरमो क्षेत्र से हार जाते हैं जो मजदूरों का गढ़ है. यही हाल गरजने वाले ददई दुबे का भी हुआ. सुबोधकांत सहाय का मजदुर यूनियन कहाँ है, किस हाल में है. किसी को नहीं मालूम.
हजारीबाग जिले में एनटीपीसी से लड़ते-लड़ते जख्मी हो चुके योगेन्द्र साव एक अनोखी लड़ाई लड़ रहे हैं. ऐसे ही कोयलांचल में सिंह मेंसन के दो किनारे मजदूरों की कम और अपने वर्चस्व की जंग में ज्यादा लहुलुहान हो रहे हैं. आखिर ऐसा कब तक चलेगा.